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क्रोध, मान, माया, लोभ जागृत होते हैं तब त्यागी और रागी, साधु और गृहस्थ में कोई फर्क नहीं रह जाता। कषाय का यह सन्निपात जब मिटता है, तभी उसे भान होता है कि वह कौन है ? और क्या कर रहा है ?
हम दुनिया के साथ जुडे हुए हैं, अलग नहीं हैं, जिस दृष्टि से हम दुनिया को देखते हैं, उन्हीं नजरों से दुनिया हमें देखती है। इसीलिए कहा है, “आप भला तो जग भला ।" इन्सान का स्वयं का जीवन सुंदर तो जगत सुंदर ।
एक धोबी कपड़े धो रहा था, साधु वहां से गुजर रहे थे, साधु पर पानी के छींटे उड़े। उन्हें क्रोध आया और हल्के शब्दो से धोबी को फटकारा । धोबी को भी गुस्सा आया, उसने गालियां देते हुए साधु से कहा, "यहां क्यों भटक रहे हो ? तलाब के पास पानी नहीं उडेगा, तो क्या पत्थर उडेंगे ?" ऐसा कहकर साधु को धक्का मारा । साधु थोडी दूर जाकर, स्वस्थ होकर सोचने लगे " दोष तो मेरा ही था । " फिर उन्होंने धोबी को खमाया । धोबी को भी इस बात का एहसास हुआ और गल्ती के लिए साधु के पैरों मे गिरकर माफी मांगी। इन्सान जब आवेश में आता है, दुसरों को कष्टदायक हल्के शब्द बोलता है। जब सन्निपात उतरता है तब साधु, साधु की भांति व्यवहार करता है । हमें आवेश पर संयम रखना चाहिए । क्षमा से क्षमा, समता से समता और क्रोध से क्रोध का उद्भव होता है।
इन्सान त्याग और साधुपन को नमन करता है। मान का आवेश, गर्व लाता है, इन आवेशों के शमन होने पर ही सही समझ आती है ओर विचारधारा सही दिशा में बहने लगती है ।
जिस इन्सान को इन बातों का ज्ञान है, उसका उद्धार तो कभी संभव हो सकेगा, क्यों कि सुना हुआ, चिंतन किया हुआ फिर कभी जागृत होगा और आत्मा को भी जगाएगा, सत्संग का यह महान लाभ है। ज्ञानी पुरूषों के सद्वचनों के श्रवण मात्र से ही कभी कभी उत्थान की महत्त्वपूर्ण भूमिका बन जाती है। गर्म तवे पर पानी की बूंदे डालते रहने से कुछ बूंदे तो जल
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