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संपूर्ण अंगोपांग
धर्म का दूसरा सोपान है संपूर्ण अंगोपांग । जिसके शरीर की रचना सुव्यवस्थित हों, पाँचो इन्द्रियां परिपूर्ण हों, धर्म आराधना उसके लिए सरल बन जाती है। आवश्यक गुणों में संपूर्ण अंगोपांग को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है ।
गूंगा व्यक्ति अपने भाव व्यक्त नहीं कर सकता । इन्सान जितना इन्द्रियों का गुलाम होगा उतना ही दुखी होगा । हमें अपनी प्रवृत्तियां जहाँ हर संभव हो सके वहाँ तक स्वयं ही करनी चाहिएं, क्यों कि काम करने की आदत छूट जाती है, तो शरीर अकड़ जाता है, कई बिमारियां आ घेरती है । इन्सान जितना आदतों से मुक्त, उतना ही वह स्वाधीन, हमें अपनी पंचेन्द्रियों को यदि सुंदर और स्वस्थ रखना हो तो जीवन में संयम तथा शरीर को प्रवृत्तिशील रखना चाहिए ।
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शरीर सुंदर होने के साथ साथ सुगठित भी होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो वह इन्सान तप, सेवा आदि सुचारू रूप से नहीं कर सकेगा,. ऐसा व्यक्ति यदि तीर्थयात्रा करने भी जाए तो उसे डोलीवालों को ही तकलीफ देनी पडेगी ।
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इसीलिए ज्ञानीयों ने कहा है, 'आरूग्ग- बोहिलाभो” शरीर और मन का उत्तम स्वास्थ्य ही उत्तम जीवन है । मन तथा देह की अस्वस्थता ही मृत्यु
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