Book Title: Bramhacharya Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri, Lilavat
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 11
________________ निवेदन। अनन्त प्रलोभनपूर्ण संसारमें वही मनुष्य 'महात्मा' 'पूज्य ' या 'संसारजयी' होता है जो प्रलोभनों को जीतता है । सब प्रलोभनोंको जीतनेका मार्ग · ब्रह्मचर्य ' है । घडीको अपनी इच्छानुकूल चलानेके लिए जैसे उसकी चाबी है, वैसे ही प्रलोभनोंको निजाधीन करनेकी चाबी 'ब्रह्मचर्य' है। अमुक स्थानपर नियत अमुक यंत्र जैसे समस्त नगरमे बिजलीका प्रकाश पहुँचाता है वैसे ही समस्त शरीर-नगरमें तेज-प्रकाश पहुँचानेवाला ब्रह्मचर्य है। संसारके सारे धर्म. सा. मतमतान्तर और सारे देश इसकी महिमा गाते हैं और इसीको मानव-समाजके उत्थानका सर्वोत्कृष्ट मार्ग बताते हैं । इसी ब्रह्मचर्य के प्रभावसे भीष्म छ: मास तक बाणशय्यापर सोये थे; इसी ब्रह्मचर्यके प्रतासे लक्ष्मणने इन्द्रजित के समान महान् राक्षपको विध्वंस किया था; इसी ब्रह्मवर्यक तजसे हीरविजयसूरिजीने अकबरके समान यवन बादशाहको अपना मुरीद बनाया था; इसी ब्रह्मचर्य-बलसे हमचंद्राचार्य महाराजने कुमारपाल राजाको अपना शिष्य बनाकर देशमें 'अमारी घोषणा' करवाई थी। इसी एक व्रतको पालने से - इसी एक संभोग प्रलोभन-विजयसे नर नारायण हो जाता है । ब्रह्मवर्यकी महिमा अपार है। ऐसे अपार महिमामय ब्रह्मवर्षका परिचय करानेवाली 'ब्रह्मचर्यदिग्दर्शन' नामकी गुजराती पुस्तक जिस समय मैंने पढ़ी; उस समय मुझे जान पड़ा मानो मैं एक अद्वितीय आनंदके साम्राज्यमें विवरण कर रही हूँ । पुस्तकको दुबारा पढ़ी तब हृदयमें आनंद और दुःख दोनों की भावनाएँ उठने लगीं । एक नत्रमें आनंदके अश्रु थे और दूसरेमें शोकके । भानंद इसलिए था कि, जीवन नष्ट करनेके मार्गमें लगे हुए मेरे अनेक भाई, वाहे न ऐसी अपूर्व पुस्तकको पढ़कर उस मार्गले मुंह मोड़ेंगे और सुमार्गम-जीवनको पवित्र और उत्तम बनानेमें लगेंगे । दुःख इसलिए कि, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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