Book Title: Bramhacharya Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri, Lilavat
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 27
________________ १३ ब्रह्मचर्यकी रक्षा कर सकते हैं। क्योंकि स्त्रियोंका स्वभाव प्रकृतिके नियमानुसार प्रथम ही चंचल होता है। यदि जरासी बात करनेकी उनको छूट मिलनाती है, तो वे घण्टो नहीं हटतीं । इसीतरह वार्तादिके प्रसंगते हास्य भी होने लगता है। ठीक तो यही है कि प्रथमसे वे ऐसे व्यवहारोंसे दूर रहें कि खराब परिणाम आनेका प्रसंग ही न आवे । ___चौथा स्थान दृष्टिसंबंधी है। यानी ब्रह्मचारी साधुओंको स्त्रीका मस्तिष्क, मुख, स्तन, बाल, बगल वगैरह ध्यानपूर्वक नहीं देखना चाहिए। उसके साथ मनोहर भाषण नेत्रके कटाक्षादि करने से भी दूर रहना चाहिए । यह तो चक्षुओंका स्वभाव ही है कि सामने आएहुए पदार्थको वे अवश्य देखते हैं, परन्तु ब्रह्मचर्यकी रक्षा करनेवाले साधुओंको स्त्रीके अंग-प्रत्यंग-निरखनिरखकर-टकटकी लगाकर नहीं देखने चाहिए। और स्त्रीके शरीरपर गईहुई अपनी दृष्टिको भी तत्काल ही इसतरह लौटा लेनी चाहिए जैसे कि सूर्य के सामने गई हुई दृष्टि लौटा ली जाती है। ___ पाँचवा स्थान यह है कि, कृनित, रुदित, और हसित वगैरह विषय-सेवन समयके शब्दोंको स्तनितशब्द कहते हैं। यदि ऐसे शब्द सुनाई दें, तो भी ब्रह्मचर्यमें लीन साधुको उनपर ध्यान न देना चाहिए। छठा-पूर्वावस्थामें स्त्रीके साथ कीहुई हँसी, क्रीडा, रति स्त्रीके मानको नष्ट करनेके लिए कियाहुआ गर्व, स्त्रीको त्रास. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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