Book Title: Bramhacharya Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri, Lilavat
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 103
________________ ८९ शीघ्रगामी ईस्ट इंडिया रेल्वेके एक डिब्बे में बैठकर कलकत्त जाता है। उसके डिब्बेमें उसके पुत्र और कुटुंबी मनुष्योंके सिवा दूसरा कोई नहीं है, तो भी इस मनुष्यको यदि जरासा भी नींदका झोका आजाता है तो वह झट अपने खांसेपर हाथ डालता है। कितनी सावधानी ! चंचल लक्ष्मीकी रक्षाके लिए कितनी चंचलता ! कितनी होशियारी ! कोई आया नहीं ! गाड़ी खड़ी नहीं रही, डिब्बे में अपने आत्मीयजनोंके सिवा कोई है नहीं, तो भी हाथ झटसे पाकिटपर ही जाता है । मगर हीरे, माणिक्य और मोतीसे भी लाखोंगुनी. कीमतवाले अपने वीर्यके लिए मनुष्य बिल्कुल परवाह नहीं करते; इतना ही क्यों उसको क्षय करने में एक प्रकारका सुख मानते हैं । मगर यह उनका भ्रम है। विषय-सेवनके समयका सुख ठीक ऐसा ही है, जैसा एक कुत्तेको अपने दाँतसे हड्डी तोडकर खाते समय होता है । हड्डी तोड़ते समय उसके मुँहसे खून निकलने लगता है, उसको अपने उसी रक्तका आस्वादन मिलता है। कामी पुरुष जब कामज्वरसे घिर जाता है, उसवक्त अपने ही पश्रिसे होनेवाले वीर्यपातको वह सुखका कारण मानता है । वस्तुतः यह सुख नहीं है परन्तु दुःखकी पूर्ति है । जो मनुष्य कामन्वरसे पीडित ही नहीं होता और हमेशा ज्ञान, ध्यान, तप, जप, परोपकार और आत्मतत्त्वमें रमण करता है, वही वास्तविक सुखी है और वह मनुष्य निस सुखका अनुभव करता है वही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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