Book Title: Bramhacharya Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri, Lilavat
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 102
________________ " यह बीन ( वीर्य ) हड्डियोंके लिए मजाके समान है, दिमाग के लिए खुराक है, जोड़के लिए तैल है, श्वासको मीठापन देता है और यदि तुम मनुष्य हो, तो जबतक पूरे तीस वर्षके न हो जाओ तबतक इस पदार्थकी एक भी बूंद खराब न करो। उसके बाद भी यदि व्यय करो तो वह सिर्फ संतति उत्पन्न कर. नेके लिए, कि नो स्वर्गका आशीर्वाद प्राप्त करेगी और वापिस जन्म लेकर स्वर्गके निवासी बननेको तैयार होगी। (धन्वंतरीके जून, जुलाई, अगस्त संवत् १९१८ का, अंक पृ. २१०) इसी पदार्थकी शक्तिके प्रतापसे अपने पूर्वक ऋषि महात्मा मनपर अधिकार जमाकर आध्यात्मिक विद्यामें आगे बढ़ते थे, और आखिरको अतीन्द्रिय ज्ञानी बनते थे । बुद्धिमान् मनुष्य सहनहीमें समझ सकते हैं कि ऐसे उत्तम पदार्थोंको कुमार्गमें व्यय करनेवाले कैसे मूर्ख होते हैं । यह तो हम पहिले ही बता चुके हैं कि, इस पदार्थका व्यय न होने देना, या इस पदार्थकी रक्षा करना 'ब्रह्मचर्य' है । यह बात खेद और आश्चर्यकी है कि, मनुष्य अपने पासकी लक्ष्मीपर इतनी दृष्टि रखता है कि, उसको किंचिन्मात्र इधर उधर नहीं होने देता। मान लो कि, एक मनुष्यके पास पचीस हजारका हीरा है। यह हीरा उसने पाकिटमें रक्खा है। पाकिट जाकिटमें है, जाकिटके ऊपर कोट पहिना है और कोटके ऊपर दुशाला ओढ़ा है। ऐसी स्थितिमें वह मनुष्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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