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Pासाहेन, मापन.
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5422008
दिग्दर्शन।
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लेखकविजयधर्मसूरि।
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॥ अर्हम् ॥ ब्रह्मचर्यदिग्दर्शन।
गुजराती लेखक
जगत्पून्य स्वर्गस्थ शास्त्रविशारद, जैनाचार्य श्रीशिवपाले।
.....
अनुवादिका न........ सौभाग्यवती-लीलावतीदेवी कृष्णलाल वर्मा ।
प्रकाशक
श्रीयशोविजय जैन ग्रंथमालाके व्यवस्थापक मण्डलकी तरफसे
सेठ फूलचंदजी वेद ( आगरा )
वीरसंवत् २४५१.]
द्वितीय संस्करण [ सन् १९२५, धर्म सं० ४
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30000000000000000000000000 ____खीवाणदी (मारवाड) निवासी शाह रामचंद कूपाजीकी तर्फसे: उनके सुपुत्र महम पल के स्मरण
१५० कापी भेट 8000०००००००००००००००००००००
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• Printed at the Luhana Mitra Steam
Printing Press Baroda by
A. V. Thakkar for Seth Fulchandji Ved on 5-10-25.
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जगत्पूज्य स्वर्गस्थ शास्त्रविशारद-जेनाचार्य श्रीविजयधर्मसूरि महाराज.
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मूल ग्रंथकर्ताकेदो-शब्द ।
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'प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते ।' यह एक सामान्य लोकोक्ति है कि, विना प्रयोजनके मंदपुरुष भी किसी कार्यमें हाथ नहीं डालता है । अत एव सिद्ध होता है कि, इस ब्रह्मचर्य दिग्दर्शन के लिखने में भी कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए । इस कारणको बतानेहीके लिए, इस छोटीसी पुस्तकमें भूमिकाकी आवश्यकता न होने पर भी, 'दो-शब्द'के रूपमें कुछ लिखना आवश्यक समझा गया है ।
इस कहावतको प्रायः लोग जानते है कि:'एक तन्दुरुस्ती हजार न्यामत ।'
बात भी सत्य है कि, प्रत्येक सुख शरीरकी नीरोगताहीमें है । करोड़ों रुपयोंको सम्पत्ति हो, घोड़े, हाथी, गाड़ी, बैल आदि सब तरहका वैभव हो और नीरोगता न हो तो वैभव आनंद नहीं देसकता; वह व्यर्थ है । इसी भाँति धर्मसाधनकी क्रियाओंमें भी शरीरके स्वास्थ्यकी आवश्यकता सबसे पहिले होती है । इसी लिए कवि कालिदामने कहा है कि"शरीरमाधं खलु धर्मसाधनम् ।" इसलिए मनुष्यको सबसे पहिले शरीरका सुख तो मिलना ही चाहिए । परन्तु संसारमें ऐसे मनुष्य बहुत ही कम हैं जो शरीरसे सर्वथा सुखी हैं। शरीरका सुख शरीरकी स्थूलनामोटाईमें नहीं है । इसी प्रकार शरीरकी कृशता-पतलेपनमें भी नहीं है । शरीरका सुख शरीरस्थ उस शक्तिम है जो प्रत्येक अवयवमें ओतप्रोत हो रही है। जिस मनुष्यकी यह शक्त सतेज, सुदृढ और सघन होती है, उसी मनुष्यके लिए कहा जासकता है कि, यह सुखी है। जिसमें वह शक्ति जबर्दस्त होती है, उस मनुष्यका मनोबल भी जबर्दस्त हो जाता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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है। उस मनोबलके कारण उसे यदि कभी अनेक हथियारबंद मनुव्यों का मुकाबिला करना पड़ता है तो भी करता है; इतना ही नहीं उसके वचनम भी इतनी शक्ति आजाती है कि, उसकी एक आवाज मात्रसे हजारों मनुष्य काँप उठते हैं। जिन मनुष्यमें ये तीन बल-मनोबल, वचनवल और कायनल-होते हैं वह कठिनसे कटिन कार्यको भी सफलतापूर्वक पूर्ण कर डालता है । इन बलों का प्रारंभ शरीर-स्वास्थ्यसे होता है । यह स्वास्थ्य नाना भाँतिके माल-मसाले खानसे या बाग बगीचों की सैर करनेसे नहीं मिलता है । यह मिलता है-ब्रह्मचर्य के पालनसे वीर्य को रक्षा करनेसे । सूखी रोटी और दाल खाते हुए भी जो ब्रह्मचर्य पालते हैं उनमें, जितनी शक्ति होती है, उतनी शक्ति नित्य हलुआ-पुरी खात हुए केर रयाँ दूध पीत हुए और महलों में अरामस रहत हुए भी ब्रह्मचर्कका भंग करनेवालों में नहीं होती । ऐसे भग महलोंमें आराम करनेवाले-मगर ब्रह्मचर्यको भंग करनेवाले दोचार मिलकर जंगल में जायें और उन्हें सामन कोई भील आता दीख जाय तो वहीं उनका राम निकल जाय । उनका हृदय घबराता है-"हाय ! हाय ! अब क्या होगा ? यह चोर तो नहीं है ? लूट तो नहीं लेगा ?" उनका यह भय ही उनके मनको निर्बलताका प्रत्यक्ष प्रमाण है । यह तो प्रसिद्ध ही है कि, ऐसे मनुज्योंका वचनवल तो हलकाही होगा।
इससे हम यह निश्चय कर सकते हैं कि, मनुव्यक उपयोगी तीनों बलों-मनोबल, वचनबल और कायबल-का आधार मुख्यतया ब्रह्मचर्य ही है । मैंने अपने गुजरात, काठियागड़, मारवाड़, मेवाड़, उत्तर हिन्दुस्थान, मगध और बंगालके विहारमें देखा है कि, इस पवित्र भारतवर्षमें ब्रह्मचका विशेष रूपसे ह्राम होता जा रहा है । जैसे प्रायः गृहस्थ शास्त्रमर्शदा और वैद्यकके नियमों को भूरकर, ब्रह्मचर्य के पवित्र नियमों का भंग करत हैं उसी भाँति, कई साधु और संन्यासी-जो ऊपरसे महात्मा होनेका अभिमान
करते हैं, परन्तु काम करते हैं महान दुरात्माओंसा-भी इन नियमोंको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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तोड़ते हैं। और जब भारतके भावी रत्नोंको; भारतकी भविष्य उन्नति आधारस्तंभ युवकोंको और बच्चोंको उनके अजायव घरोंमें ( स्कूलों और कोलेजोंमें ) जाकर देखते हैं तो अन्तःकरण दुःखी हुए विना नहीं रहता। वस, इन्हीं प्रधान कारणोंको लक्ष्यमें रखकर यह पुस्तक लिखी गई है । कबतक ब्रह्मचर्य पालना चाहिए ? व्याह करनेका हेतु क्या होना चाहिए ? साधुओंको ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिए कस कैसे नियमोंका पालन करना चाहिए ? संतान पर मातापिताको किस प्रकारसे लक्ष्य रखना चाहिए ? और ब्रह्मचर्व पालनेसे क्या लाभ है ? ये ही बातें इस पुस्तककी रचनाकी प्रधान लक्ष्यबिन्दु हैं । संक्षेपमें यह है कि, इस पुस्तकमें, गृहस्थ और साधु, स्त्री
और पुरुष, बालक और वृद्ध सबको उनके अधिकारानुसार ब्रह्मचर्य पालनेका उपदेश दिया गया है। इस विषयमें विशेष कुछ लिखना हाथकंगनको आरसीमें देखनेकासा होगा, इसलिए ऐसा न कर, अन्तःकरणपूर्वक यह इच्छा करता हूँ कि, इस पुस्तकको पढ़नेवाले ब्रह्मचर्यका विशेषरूपसे पालन कर शरीरबल, वचनबल और मनोबलकी अभिवृद्धि करें । अन्तमें यह भावना करता हुआ इस कथनको समाप्त करता हूँ कि, इस पुस्तककी योजनामें जिन पुस्तकोंका वाचन मेरे उपयोगमें आया है उन पुस्तकोंके लेखक भी इस पुस्तककी योजनासे होनेवाले पुण्यके भागी बनें ।
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निवेदन।
अनन्त प्रलोभनपूर्ण संसारमें वही मनुष्य 'महात्मा' 'पूज्य ' या 'संसारजयी' होता है जो प्रलोभनों को जीतता है । सब प्रलोभनोंको जीतनेका मार्ग · ब्रह्मचर्य ' है । घडीको अपनी इच्छानुकूल चलानेके लिए जैसे उसकी चाबी है, वैसे ही प्रलोभनोंको निजाधीन करनेकी चाबी 'ब्रह्मचर्य' है। अमुक स्थानपर नियत अमुक यंत्र जैसे समस्त नगरमे बिजलीका प्रकाश पहुँचाता है वैसे ही समस्त शरीर-नगरमें तेज-प्रकाश पहुँचानेवाला ब्रह्मचर्य है। संसारके सारे धर्म. सा. मतमतान्तर और सारे देश इसकी महिमा गाते हैं और इसीको मानव-समाजके उत्थानका सर्वोत्कृष्ट मार्ग बताते हैं ।
इसी ब्रह्मचर्य के प्रभावसे भीष्म छ: मास तक बाणशय्यापर सोये थे; इसी ब्रह्मचर्यके प्रतासे लक्ष्मणने इन्द्रजित के समान महान् राक्षपको विध्वंस किया था; इसी ब्रह्मवर्यक तजसे हीरविजयसूरिजीने अकबरके समान यवन बादशाहको अपना मुरीद बनाया था; इसी ब्रह्मचर्य-बलसे हमचंद्राचार्य महाराजने कुमारपाल राजाको अपना शिष्य बनाकर देशमें 'अमारी घोषणा' करवाई थी। इसी एक व्रतको पालने से - इसी एक संभोग प्रलोभन-विजयसे नर नारायण हो जाता है । ब्रह्मवर्यकी महिमा अपार है।
ऐसे अपार महिमामय ब्रह्मवर्षका परिचय करानेवाली 'ब्रह्मचर्यदिग्दर्शन' नामकी गुजराती पुस्तक जिस समय मैंने पढ़ी; उस समय मुझे जान पड़ा मानो मैं एक अद्वितीय आनंदके साम्राज्यमें विवरण कर रही हूँ । पुस्तकको दुबारा पढ़ी तब हृदयमें आनंद और दुःख दोनों की भावनाएँ उठने लगीं । एक नत्रमें आनंदके अश्रु थे और दूसरेमें शोकके । भानंद इसलिए था कि, जीवन नष्ट करनेके मार्गमें लगे हुए मेरे अनेक भाई, वाहे न ऐसी अपूर्व पुस्तकको पढ़कर उस मार्गले मुंह मोड़ेंगे और सुमार्गम-जीवनको पवित्र और उत्तम बनानेमें लगेंगे । दुःख इसलिए कि, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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.भारतकी आज क्या दशा होगई है ? भारतवासियोंके तेज-पूर्ण चहगें पर भाऊ कैसी मुनी छाई है ? जिन लिलाटोंपर ब्रह्मचर्यके तेजकी ज्योति नगमगाती थी उनपर आज कैसी जर्दी छाई है ? तीर्थकरो और अवता. रोंका लीलास्थल भारतकी आज यह कैसी दशा है ?
इस पुस्तके लेखक महाराज बालब्रह्मचारी । ब्रह्मचर्य के प्रभावसे आपने असाधारण प्रतिष्ठा लाभ की है। भारतीय ही नहीं इंग्लैंड, अमेरिका, जर्मनी, इटली, फ्रांस आदि पाश्चात्य देशों के विद्वान् भी आपके ब्रह्मचर्यपक्षस प्रस्फुटित ज्ञान-पुष्पकी सौरभस मत्त होकर आपकी प्रशंसा करते हैं; आपके सामने भक्तिभावसे अपना सिर झुराते हैं। चार महीनेसे आप रुग्णसय्या पर सो रहे हैं तो भी ब्रह्मचर्य के तेजसे आपका लिलाट आज भी दमक दमक करता है।
ऐस ब्रह्मचारी महात्माके उपदेशसे; महात्माकी लिखी हुई पुस्तकके पाठसे प्रत्येक व्यक्ति ब्रह्मचर्य पाले विना नहीं रहगी। जो सर्वथा पालनेको संत्पर नहीं होगा, वह भी कमसे कम अमुक नियमोंके साथ तो अवश्यमेव इस व्रतको पालेगा । यही सोचकर मैंने इस पुस्तकका संदेश हिन्दीभाषियों तक पहुँचानेके लिए, हिन्दी अनुवाद किया है। ___मैं यशोविजय जैन-ग्रंथमालाके संचालकोंको धन्यवाद दिये विना नहीं रह सकती, जिन्होंने प्रसन्नतापूर्वक इस पुस्तकका अनुवाद प्रकाशित करना स्वीकार कर लिया ।
मुझे यह कहते संकोच होता है कि, मैंने हिन्दीभाषीके घर जन्म ऐकर भी गुजरातीमें अभ्यास किया था; इसलिए; और अनुवाद करनेका अभ्यास नहीं इसलिए भी; अनुवादमें बहुतसी त्रुटियाँ रह गई होंगी । पाठक पाठिकाएँ उसके लिए मुझे क्षमा करें ।
अनुवादिका।
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विषयानुक्रम ।
१ उपक्रम ... . ... ... २ प्रहाचर्य क्ण है ?... ३ वीर्यरक्षाकी आवश्यकता ४ ब्रह्मचर्यके दो भेद ... ५ ब्रह्मचर्यके दश स्थान ६ हिन्दुधर्मशास्त्रोंकी अज्ञाएँ ... ७ बौद्ध धर्मशास्त्र क्या करते हैं? ८ साधु-धर्मका भूषण ब्रह्मचर्य ही है ९ गृहन्थियों के पालनेका ब्रह्मचर्य... १० कमसे कम वीय-रक्षा कहाँतक करनी चाहिए ! ११ वर्तमान कालके युवक और बालकोंकी स्थिति १२ बाल्यावस्थामें पड़नेवाली बुरी आदतें ... १३ माता-पिताका कर्तव्य ... १४ समाजकी झूठी मान्यता ... १५ जीवनभर ब्रह्म वय पालनेका प्रभाव १६ पुत्रप्राप्तिकी इच्छासे ब्रह्मचर्य का नाश करना १७ लग्न किसके साथ करना चाहिए? ... १८ 'काम' पुरुषार्थ की साधना किस तरह करनी चाहिए ? १९ ब्याह करने के बाद भी ब्रह्मचर्य पालनेकी आवश्यकता २० विषयसेवनकी मर्यादा क्या है ! ... २१ क्या ज्यादा विषय -सेवनसे काम' की तृप्ति होती है ? २२ थोड़े वार्यकी क्षति भी बहुत नुकसान करती है ... २३ ब्रह्मचर्य से लाभ ... ... ... ...
... ६२ ... ६४ ... ६६
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२४ एकपत्नीव्रतकी आवश्यकता ... ... २५ ज्यादा पुत्रोंकी उत्पत्तिसे आर्थिक हानि ... २६ विधवाविवाहसे खरावी ... २७ स्त्री सदाचारिणी कैसे रह सकती है ? ... २८ दुराचारिणी स्त्रीको निर्दयता ... १९ स्त्रियों को सावधानी रखनी चाहिए ३० पतिव्रताधर्म किसे कहते हैं ?... ३१ वीर्य की अद्भुत शक्ति ३२ ब्रह्मचर्यका प्रताप ... .
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॥ अहम् ॥ शान्तमूर्तिश्रीवृद्धिचंद्रेभ्यो नमः । ब्रह्मचर्यदिग्दर्शन ।
उपक्रम ।
बहुधा जब हम मनुष्योंके अगाध शरीर-बल और अतितीव्र मानसिक बलकी कथाएँ सुनते हैं, तब हमें इतना आश्चर्य होता है कि जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते । भीष्मके महान् पराक्रमी कार्योका वृत्तान्त बाँचनेवाले और द्रौपदीके चीरहरण करनेकी कथा सुनकर सचमुच आश्चर्यसागरमें डूब जानेवाले बहुत हैं परन्तु भीष्म ऐसे पराक्रमी कार्य कैसे कर सकता था ? और द्रौपदी के वस्त्रहरण करनेपर भी, वह नग्न क्यों नहीं दिखाई देती थी ? इन बातोंका विचार करनेवाले मनुष्य बहुत थोड़े हैं। भीष्म और द्रौपदीके दृष्टांत बहुत प्राचीन समयके हैं, मगर आजकल भी अपनी दृष्टिमर्यादामें ऐसे अनेक अद्भुत कार्य हो रहे हैं कि जो कार्य भीष्म और द्रौपदीके कार्योंके समान ही हमारे हृदयमें आश्चर्य उत्पन्न करते हैं। प्रॉफेसर राममूर्ति यद्यपि साढ़े तीन हाथका सामान्य मनुष्य है। तो भी वह तीव्रवेगसे चलती हुई मोटरको अपने बलसे रोक सकता है । लोहेफी मजबूत साँकलको झटकेसे तोड़ सकता है।
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अपनी छातीपर हाथीको चढ़ा उसका बोझ सह सकता है और मनुष्योंसे भरी हुई गाडीको अपनी जाँघ पर चला सकता है। ये क्या कम आश्चर्यकी बातें हैं ? केवल प्रॉफेसर राममूर्ति जैसे पुरुष ही क्यों ? कुमारी ताराबाई जैसी भारतवर्षकी महिला भी इसी तरह के काम कर बताती है। परन्तु ये सब बातें वे किसके प्रतापसे कर सकते हैं ? इसका कारण जाननेकी हम लोगोंको गरज ही क्या पडी है ? जिन्होंने इन कार्योके मूलको खोजा होगा; अर्थात् जिन्होंने प्रॉफेसर राममूर्तिको पूछा है वे तो निश्चयतः समझ गये होंगे कि ऐसे महान् पुरुषार्थके कार्य करनेका सामर्थ्य उनको मात्र एक ब्रह्मचर्यके प्रतापसे प्राप्त हुआ है। प्राचीन समयमें भी महान् पुरुषार्थ के जो कार्य किये गये थे वे सब केवल ब्रह्मचर्यके प्रतापसे ही किये गये थे । इसका विशेष वर्णन तो हम आगे करेंगे । मगर यहाँ इतना समझलेना जरूरी है कि-संसारका प्रत्येक मनुष्य ब्रह्मचर्यके प्रतापसे छोटे बड़े सब तरह के कार्य करनेको सशक्त बन सकता है। जितने अंशोंमें मनुष्य ब्रह्मचर्यकी विशेष रक्षा करता है, उतने ही अंशोंमें वह महत्त्वपूर्ण कार्य करनेको विशेषरूपसे शक्तिवान बन सकता है। क्या संसारमें ऐसे भी मनुष्य दृष्टिगोचर नहीं होते, जो बिवारे अपने मुँह पर बैठी हुई मक्खीको भी उड़ानेमें असमर्थ होते हैं ! इसका कारण क्या है ? इसका कारण यही है कि वे ब्रह्मचर्यकी बिलकुल रक्षा नहीं करते हैं।
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ब्रह्मचर्य क्या है ? ___ अब यह बताना जरूरी है कि-'ब्रह्मचर्य' क्या चीज़ है ? अर्थात् 'ब्रह्मचर्य' किसे कहते हैं ? यदि ब्रह्मचर्यका उसकी शब्दव्युत्पत्तिसे अर्थ किया जाय तो उसका यह अर्थ होगा कि:
__'ब्रह्मणि चरणमिति ब्रह्मचर्यम्' आत्मामें विचरण करनेका नाम ' ब्रह्मचर्य' है । परन्तु आत्मामें विचरण करनेका कार्य तभी हो सकता है जब कि वीर्यकी रक्षा की जाती है। अतएव हम 'ब्रह्मचर्य' शब्दका अर्थ यहाँ पर 'वीर्यकी रक्षा' यही करेंगे । अर्थात् वीर्यकी रक्षा करनेका नाम ही 'ब्रह्मचर्य है । 'पातञ्जलयोगसूत्र' के साधनपादके ३८ वे सूत्र में कहा है कि"ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः" अर्थात् ब्रह्मचर्यकी प्रतिष्ठारक्षा-से वीर्यका लाभ होता है । इसकी टीकामें भोजदेवने कहा. है कि:__“यः किल ब्रह्मचर्यमभ्यस्यति तस्य तत्प्रकर्षानिरतिशयं वीर्य सामर्थ्यमाविर्भवति । वीर्य निरोधो हि ब्रह्मचर्य, तस्य प्रकर्षाच्छरोरेन्द्रियमनःसु वीर्य प्रकर्षमागच्छति" ___ अर्थात्-जो मनुष्य ब्रह्मचर्यकी रक्षा करता है उसको ब्रह्मचर्यकी विशेषतासे निरतिशय वीर्यका-सामर्थ्यका लाभ होता है ।
और वीर्यका लाभ होना ही ब्रह्मचर्य है । उसके बढ़ानेसे शरीर, इन्द्रियाँ और मनमें विशेष शक्ति बढ़ती है । इस कथनसे भी यही सिद्ध होता है कि-वीर्यकी रक्षा करनेका नाम ही ब्रह्मचर्य है।
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ब्रह्मचर्य की यदि विस्तृत रूपसे व्याख्या कीजाय तो वह इस तरह होगी कि - मनुष्यको- स्त्री या पुरुषको विषयकी इच्छासे एक दूसरेका स्पर्श भी नहीं करना चाहिए। इतना ही नहीं; विषके विचारों को भी उसे अपने हृदयमें स्थान नहीं देना चाहिए ।
इस ब्रह्मचर्यकी पराकाष्ठा तो हम तब ही मान सकते हैं, जब विषय संबंधी बातोंका स्वप्न भी न आवे । विषयकी इच्छा लेशमात्र भी हृदय में उत्पन्न न हो । एसी स्थिति में पहोंच नेवालेको ही हम ब्रह्मचर्य की पराकाष्ठातक पहोंचा हुआ कह सकते हैं । इस स्थिति में जितनी न्यूनता होगी उतनी ही ब्रह्मचर्य में भी न्यूनता होगी । प्रत्येकको यह भली प्रकार समझना चाहिए । वीर्यरक्षाकी आवश्यकता |
इस ब्रह्मचर्यकी रक्षा करना वीर्यकी रक्षा करना, साधु या गृहस्थ, बालक या वृद्ध, स्त्री या पुरुष - प्रत्येक के लिए आवश्यकी है। दूसरे शब्दों में कहें तो वीर्यरक्षा करना मानो आत्मरक्षा करना है । धार्मिक नियमोंको छोड़कर यदि वैद्यक नियमोंसे देखेंगे तो भी ज्ञात होगा, कि वीर्यके वैद्यकके ग्रंथ भावप्रकाशमें कहा है कि:
I
अंदर जीव रहते हैं ।
"जीवो वसति सर्वस्मिन् देहे तत्र विशेषतः । वीर्ये रक्ते मले यस्मिन् क्षीणे याति क्षयं क्षणात् ॥"
अर्थात् - यद्यपि जीव सारे शरीर में रहता है, तो भी वीर्य,
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लोही और मलमें तो वह विशेषरूपसे रहता ही है। जिसवक्त इन वस्तुओंका नाश होता है, उसी समय आत्मा भी शरीरसे दूर हो जाता है। उपर्युक्त कथनसे हम यह भलीप्रकार समझ सकते हैं कि आत्मा और वीर्यका घनिष्ठ संबंध है। और इसीलिए वीर्य-क्षयसे यदि आत्मिक बल घट जाय तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । अतः प्रत्येक प्राणीको और खासकर प्रत्येक मनुष्यको सचेत होकर अपने वीर्यकी रक्षा करना अत्यंत आवश्यकीय है । यह बात भी सच है, कि वीर्य हमारे शरीरका राना है । वीर्य केवल शरीरके अमुक भागमें ही नहीं है; परन्तु उसका साम्राज्य शरीरकी प्रत्येक रगमें चोटीसे एडीतक है। चरकसंहितामें चिकित्सास्यानके दूसरे अध्यायमें कहा है कि:
"रस इक्षौ यथा दधि सर्पिस्तैलं तिले यथा। सर्वत्रानुगतं देहे शुक्रं संस्पर्शने तथा ॥ तत स्त्रीपुरुषसंयोगे चेष्टासंकल्पपीडनात् ।। शुक्रं प्रच्यवते स्थानान्जलमात् पटादिव ॥"
अर्थात्-जिसतरह गन्नेमें रस, दहीमें घी, और तिल्लीमें तैल रहता है उसीतरह वीर्य भी शरीरके प्रत्येक परमाणुमें व्याप्त है। भीगेहुए कपड़े से जैसे पानी गिरता है वैसे ही, वीर्यभी स्त्री-पुरुषके संयोगसे तथा चेष्टा, संकल्पपीडनादिसे अपने स्थानसे नीचे गिरता है।
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हम देखते हैं कि गन्नेको कोल्हमें पीलकर बाहिर निकालनेके बाद उसकी सारी सुंदरता नष्ट हो जाती है, और उसमें सिर्फ दूंचे बाकी रह जाते हैं । दहीका सत्त्व-घृत चिकाल लेनेसे फिर मात्र छाछरूप पानी ही रह जाता है; तिलोंमेंसे तैल निकाल लेने के बाद खलमात्र ही रह जाता है । इसीतरह शरीरके सत्त्वस्वरूप-शरीरके रानारूप-वीर्यका जब क्षय हो जाता है तब हमारा शरीर सत्त्व-विहीन धौंकनीकासा मिट्टीका पुतला मात्र रहनाता है। विशेष क्या ? शक्ति-विहीन शरीरमेंसे प्राणपखेरू उड जायँ तो भी कोई आश्चर्य नहीं है । एक मनुष्य सिंहके मुताबिक गर्जना करता रहता है, दूसरा विचारा इतना कमजोर होता है कि अपना बोलाहुआ आप ही कठिनतासे सुन सकना है । एक मनुष्यमें इतनी शक्ति है, कि वह बीस बीस पचीस पचीस मन बोझा दमभरमें उठाकर फेंक देता है, और दूसरेमें अपने मुँहपर बैठीहुई मक्खीको उड़ा देने जितनी भी शक्ति नहीं है । एक मनुष्यकी मस्तिष्कशक्ति इतनी तीव्र होती. है, कि वह चन्टेभरमें बीस, पचीस, पचास या सौ श्लोक बड़े मजेसे कंठस्थ कर सकता है और दूसरा इतना हीनशक्ति होता है, कि दिनभर घोख घोखकर भी बड़ी मुश्किलसे एकाध श्लोक याद कर सकता है । इन सबका मुख्य कारण क्या है ? केवल वीर्यरक्षाका-सद्भाव और दुर्भाव । जो जितने अंशमें वीर्यकी रक्षा करता है उसकी बुद्धि उतने ही अंशोंमें तीव्र होती है।
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इस बातसे हम यह भली प्रकार समझ सकते हैं, कि वीर्यकी रक्षा-ब्रह्मचर्य का पालन करना मनुष्यमात्रके लिए आवश्यक है । 'मनुष्यमात्र' इस शब्पसे हम यह नहीं कहना चाहते कि सिर्फ स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप और मोक्ष आदिकी आस्था रखनेवाले मनुष्योंकोही ब्रह्मचर्यकी आवश्यकता है। परन्तु हम तो कहते हैं कि जो लोग पुण्य, पाप, स्वर्ग, नरक और मोक्षादिको नहीं मानते हैं और मात्र संसारके सुखों को ही वास्तविक मानकर मौज-शौकमें तल्लीन रहते हैं, उनके लिए भी ब्रह्मचर्य पालना अति आवश्यक है। धर्मतत्त्वसे अज्ञात मनुष्य भी ब्रह्मचर्यकी आवश्यकताको स्वीकार करते हैं । इस बातको हरेक चाहे वह आस्तिक हो या नास्तिक, धर्मी हो या अधर्मी स्वीकार करता है कि शरीरका नष्ट होना या उसमें अनेक प्रकारकी व्याधियोंका उत्पन्न होना बहुत बुरा है । अतः धर्मको छोड़कर भी वीर्यकी रक्षा करना मनुष्यजातिका प्रथम कर्तव्य है। ब्रह्मचर्य के दो भेद। ___ मनुष्यनातिके दो विभाग हैं। उनमें से पहिलेमें साधु हैं
और दूसरेमें गृहस्थ । इन दो विभागों के कारण ही शास्त्रकारोंने ब्रह्मचर्यकेभी दो भेद किये हैं। १ सर्वथा और २ देशतः । साधुओंको हमेशा सर्वथा ब्रह्मचर्यका पालन करना चाहिए। यानी स्त्रीमात्रसे दूर रहना चाहिए । और देशतः वह है, कि
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अपनी विवाहिता स्त्रीके साथ संभोग कर संतोष मानना और उसके सिवाय सर्व स्त्रीजातिको माता, बहिन अथवा पुत्री तुल्य समझना चाहिए । इन दो भेदोंको कई "प्रधान" और "गौण" के नामसे भी पुकारते हैं । वे कहते हैं-साधु वे हैं जिन्होंने स्त्री, लक्ष्मी पुत्र, परिवार वगैरह सर्व सांसारिक उपाधियोंसे विरक्तता धारण कर दीक्षा द्रहण करली है; जो स्वपरकल्याणके लिए शरीरको उपयोगी समझकर भिक्षावृत्तिद्वारा उसकी पालना करते हैं और उससे स्थान स्थान पर जा कर लोगोंको उपदेश देनेका कार्य लेते हैं । जो संसारकी सर्व स्त्री-जाति मात्रको अपनी माता, बहिन और पुत्री के तुल्य समझ कर विषयवासनासे वंचित रहते हैं वे ही इसतरह ब्रह्मचर्यका पालन करनेवाले ही-सच्चे साधु होते हैं। ऐसे साधुओंको चाहिए कि वे अपने ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिए शास्त्रकारोंके ज्ञानी पुरुषों के बाँधे हुए किले में-नियमोंमें जरूर रहें । संसारकी परिस्थितियाँ ऐसी बलवान हैं कि मनुष्योंपर उनका असर हुए विना नहीं रहता। अग्निके पास रक्खा हुआ घी कब तक जमा रह सकता है ! सिंहके आगे खडाहुआ मृग कहाँतक जिन्दा रह सकता है ? इसीतरह संसारकी अनियमित मोहक परिस्थितियों में रहनेवाला साधु भी कैसे अपने ब्रह्मचर्यकी रक्षा कर सकता है ? नहीं कर सकता । इसलिए जो साधु अपने ब्रह्मचर्यकी संपूर्णतया रक्षा करना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि वे अपने मनको भूलकर भी
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किले के बाहिर न जानेदें । शास्त्रकारोंने संन्यासिओंको-साधु.
ओंको, लकड़ीकी पुतली छूना भी मना किया है । कारण यही है कि वे विषय-वासनाप्रेरक वस्तुओंसे दूर रहें । उनके मनपर उनका जरासा भी असर न हो और वे संपूर्णतया ब्रह्मचर्यकी रक्षा कर सकें । संसारमें ऐसे सैंकड़ों उदाहरण मौजूद हैं-कि स्त्रियोंक सहवाससे कई अखंड ब्रह्मचारियोंने भी अपना सर्वनाश किया है।
इसी लिए शास्त्रकार उद्घोषणापूर्वक कहते हैं कि सर्वथा ब्रह्मचर्यके पालनेवाले पुरुषोंको कदापि ऐसी परिस्थितिमें नहीं रहना चाहिए-कि जिसमें ब्रह्मचर्यके भंग होनेका भय हो। ब्रह्मचर्यके दश स्थान । ___ यद्यपि साधु शीलसुगंधसे हमेशा सुगंधित हैं, सत्यरत्नसे धनाढ्य हैं, समभावभूषणसे अलंकृत हैं, निस्पृहतामें मस्त हैं, अस्तेयभावसे अस्तकर्मा हैं और अहिंसाधर्मके पालनेसे अहिंसक हैं, तो भी वे अपने ब्रह्मचर्यव्रतसे स्खलित न होजायँ, इसलिए उत्तराध्ययनसूत्रके सोलहवें अध्ययनमें समाधिके दशस्थान वर्णन किये गये हैं । वे इस तरह हैं:
"जं विवित्तमणाइण्णं रहिअं थीजणेण य । बंभचेरस्स रक्खडा आलयं तु निसेवए ॥ मनपल्हाय जणणी कामरागविवड्ढणी । बंभचेररओ भिक्खू थीकहं तु विवज्जए ।
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समं च संथवं थीहिं संकहं च अभिक्खणं । बंभचेररओ भिक्खू निचसो परिवज्जए ॥ अंगपचंगसंठाणं चारुल्लविअपेहि। बंभचेररओ थीणं चक्खुगिजं विवज्जए । कुइअं रुह गीअ हसि थणिअदि। बंभचेररओ थोणं सोअगिजं विवज्जए । हासं किड्डु रई दप्पं सहसावत्तासिआणि अ। बंभचेररओ थीणं नाणुचिते कयाइवि ॥ पणिअं भत्तपाणं च खिप्पं मयविवड्ढणं । बंभचेररओ भिक्खू निच्चसो परिवजए । धम्मलद्धं मिश्र काले जतत्थं पणिहाणवं । नाइमत्तं तु भुंजिन्जा बंभचेररओ सया॥ विभूसं परिवजिज्जा सरीरपरिमंडणं । बंभचेररओ भिक्खू सिंगारत्थं न धारए । सद्दे रूवे अ गंधे अरसे फासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे निच्चसो परिवजए" ॥
उपर्युक्त दश गाथाओंमें समाधिक दश स्थान वर्णन किएगये हैं, जिनमें प्रथम समाधिस्थान निवासस्थान है। अर्थात् जो स्थान स्त्री पशु और नपुंसकके संबंधसे रहित हो-ऐसे एकान्त स्थानमें ब्रह्मचर्यरक्षाके इच्छुक साधुओंको रहना चाहिए।
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सच तो यह है कि इसतरहके संबंधवाले स्थानमें साधुओंके ब्रह्मचर्यका शुद्ध रेहना यदि असंभव नहीं है, तो भी दुष्कर अवश्य है । क्योंकि, स्त्रीके हावभाव-चेष्टादि वारंवार दृष्टिगोचर होतेहैं, इससे गाढराग उत्पन्न होनेकी संभावना है । गाढराग उत्पन्न होनेके कारण मनुष्य हितकारी वचनको भूल जाते हैं
और नास्तिक-अनिष्ट वचनोंको ही वे यथार्थ समझने लगजाते हैं । धीरे धीरे उनकी ऐसी स्थिति होजाती है किः
"सत्यं वच्पि हितं वच्मि सारं वच्मि पुनः पुनः ।
अस्मिन्नसारे संसारे सारं सारंगलोचना" ॥
इत्यादि दुष्ट भावनाएँ उनके मनमें उत्पन्न हो जाती हैं और मिथ्यात्वके उदयसे वे अपना चित्त उनकी सेवामें लगा देते हैं। इतना ही नहीं उनके मनमें ऐसी शंकाएँ भी उत्पन्न होने लगती हैं, कि तीर्थकरोंने स्त्रीसेवनमें जो दोष बताए हैं वे ठीक हैं या नहीं ? उनके मनमें ऐसे भी संकल्प-विकल्प होने लगते हैं, कि शुष्क आहार-विहार-भूमिशय्या केशलोचादि कष्टोंका फल प्राप्त होगा या नहीं ? और इसका परिणाम यह होता है, कि वे अपना चित्त स्त्रीसेवनतरफ दौड़ाते हैं। इन संकल्पविकल्पोंके कारण परिणामोंके बिगड़नेका भय रहता है । इसलिए साधुओंको स्त्रियोंके संसर्गवाली जगहसे दूर रहना चाहिए । इसीतरह पशुओंका संसर्गसंबंध भी साधुओंके ब्रह्मचर्यको हानिकर्ता है । क्योंकि पशुओंको ऐमा ज्ञान नहीं है कि यहाँ
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पर मनुष्य खड़े हैं इस लिए हमें विषय-सेवन नहीं करना चाहिए । अतएव जो साधु ऐसे स्थानोंमें रहते हैं; पशुओंका विषयभोग वारंवार उनके देखने में आता है और उससे उनकी मनोवृत्ति विकारी होने लगती है। इसलिए उनको चाहिए कि वे पशुरहित स्थानमें रहें, और नपुंसकयुक्त स्थानतो प्रत्यक्ष सिद्ध खराब है ही, इसलिए इन तीनों स्थानों में साधुओंको रहना अनुचित है।
दूसरा समाधिस्थान कथाके विषयमें है। यानी मनको आह्लाद उत्पन्न करनेवाली और कामरागको बढ़ानेवाली, ऐसी स्त्रीकथा ब्रह्मय॑में लीन साधुओको नहीं करनी चाहिए और न सुननी ही चाहिए। स्त्रियोंकी कथाएँ-बार्ताएँ भी इतनी आकर्षक होती हैं कि वे पुरुषोंके मनपर प्रभाव डाले विना नहीं रहती। इस बातको सब अच्छीतरह समझते हैं, कि वैराग्यकी कथा सुननेसे मनुष्यके मनमें वैराग्य उत्पन्न होता है और कामोत्तेजक कथाके सुननेसे दुर्विचार। इस लिये सदा स्त्रियों के रुप लावण्यवेषादिकी कथा करने और सुननेसे साधुओंको दूर रहना चाहिए ।
तीसरा स्थान स्त्रियोंके साथ व्यवहारसंबंधका है। स्त्रीके साथ परिचय करना। अर्थात्-स्त्रीके साथ एकही आसन पर बैठना नहीं चाहिए। अकेली स्त्रीसे वार्तालाप नहीं करना चाहिए, और स्त्रियोंके साथ वारंवार बोलनेका प्रसंग भी नहीं आने देना चाहिए । इस तरहका व्यवहार रखनेवाले साधु अपने
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ब्रह्मचर्यकी रक्षा कर सकते हैं। क्योंकि स्त्रियोंका स्वभाव प्रकृतिके नियमानुसार प्रथम ही चंचल होता है। यदि जरासी बात करनेकी उनको छूट मिलनाती है, तो वे घण्टो नहीं हटतीं । इसीतरह वार्तादिके प्रसंगते हास्य भी होने लगता है। ठीक तो यही है कि प्रथमसे वे ऐसे व्यवहारोंसे दूर रहें कि खराब परिणाम आनेका प्रसंग ही न आवे । ___चौथा स्थान दृष्टिसंबंधी है। यानी ब्रह्मचारी साधुओंको स्त्रीका मस्तिष्क, मुख, स्तन, बाल, बगल वगैरह ध्यानपूर्वक नहीं देखना चाहिए। उसके साथ मनोहर भाषण नेत्रके कटाक्षादि करने से भी दूर रहना चाहिए । यह तो चक्षुओंका स्वभाव ही है कि सामने आएहुए पदार्थको वे अवश्य देखते हैं, परन्तु ब्रह्मचर्यकी रक्षा करनेवाले साधुओंको स्त्रीके अंग-प्रत्यंग-निरखनिरखकर-टकटकी लगाकर नहीं देखने चाहिए। और स्त्रीके शरीरपर गईहुई अपनी दृष्टिको भी तत्काल ही इसतरह लौटा लेनी चाहिए जैसे कि सूर्य के सामने गई हुई दृष्टि लौटा ली जाती है। ___ पाँचवा स्थान यह है कि, कृनित, रुदित, और हसित वगैरह विषय-सेवन समयके शब्दोंको स्तनितशब्द कहते हैं। यदि ऐसे शब्द सुनाई दें, तो भी ब्रह्मचर्यमें लीन साधुको उनपर ध्यान न देना चाहिए।
छठा-पूर्वावस्थामें स्त्रीके साथ कीहुई हँसी, क्रीडा, रति स्त्रीके मानको नष्ट करनेके लिए कियाहुआ गर्व, स्त्रीको त्रास.
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देनेके लिए कियाहुआ नेत्रविकार आदिको ब्रह्मचारी साधु कदापि याद न करे । क्योंकि याद करनेसे कामोत्पत्ति होती है और उसके उत्पन्न होनेसे ब्रह्मचर्यभंग होता है।
सातवाँ-जिस आहारमेंसे घीकी बूंदें टपकती हो उसे प्रणीतआहार कहते हैं । ऐसा प्रणीत आहार और जल्दी कामवृद्धि करे ऐसा आहार साधुओंको सर्वथा वर्च्य है। ___जरा सोचनेकी बात है कि-व्यापारी देश छोड़ परदेश जाते हैं, तब वे वहाँ अनेक कष्टोंका सामना करते हैं। खाने पीनेमेंभी वे बहुत कुछ विवेक रखते हैं, और अपने मनोमंदिर में ऐसी भावना करते हैं कि किस तरहसे हम खूब द्रव्य उपार्जन कर स्वदेश वापिस लोट जायें । इसी तरह सच्चे साधु भी गृहस्थवेष त्यागकर साधुवेष धारण करते हैं, देश छोड़कर विदेशोंमें विचरते हैं, अनेक प्रकारके परिषह सहन करते हैं और “ आत्म · लक्ष्मीको किस तरहसे प्रकट करें " इसी विचारसे रसकसका त्यागकर ब्रह्मचर्यरूपी रत्नचिंतामणिकी रक्षा करनेके लिए मिष्टान्नपानकी इच्छाको दूर कर केवल पेटरूपी गढेको पूरनेके लिए निर्दोष आहार लेते हैं, और अपना लक्ष्य साधनेको हमेशा सावधान रह फिरते हैं । साधु होनेका उद्देश्य क्या है ? इन्द्रियनिग्रह और शुद्ध ब्रह्मचर्यका पालन । जो साधु ऐसा वर्ताव नहीं करते उनके लिए समझना चाहिए कि वे दिन दुपहरे ही भरी हाटमें लुट गये हैं। ब्रह्मचर्यव्रत पालनेवाले साधुओंपर आहारका असर जल्दी होता
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है, इस बातको ध्यानमें रख कर वीर्यकी रक्षा करनेवाले साधु
ओंको चाहिए कि वे ' प्रणीत ' और 'गरिष्ठ वस्तुएँ जो जल्दी कामको सतेज करती हैं। कभी न खाया करें । हाँ कमी किसी खास कारणके लिए खा भी जायँ तो कोई हरकत नही हैं। परन्तु शरीरकी शोभावृद्धि करनेके लिए अथवा शरीरकी पुष्टिके लिए ऐसा आहार लेना साधुओंके लिए बिलकुल मना है । ऐसा होनेपर भी जो इन उद्देश्योंकी पूर्तिके लिए उपर्युक्त कथनानुसार आहारका उपयोग करता है, वह केवल नामधारी-वेषधारी साधु है; कर्तव्य परायण साधु नहीं । शास्त्रकार धर्मग्रंथोंमें वारंवार घी, दूध, दही, मिष्टान्न और तेल आदि विकार उत्पन्न करनेवाले पदार्थ खानेकी मनाई करते हैं । यद्यपि भक्त गृहस्थ भक्तिके आवेशमें आकार ऐसी ऐसी वस्तुएँ जितनी चाहिए उतनी दे देतेहैं; परन्तु आत्मार्थी साधुओंको अपना विचार आप ही करना चाहिए । उपर हम यह बात बता चुके हैं कि ' गृहस्थ जिसतरह द्रव्योपार्जन हिताथ विदेश जाते हैं, उसी प्रकार आत्मार्थी पुरुष शिवमंदिरमें-मोक्षमें जानेके लिए विदेशभ्रमण करते हैं। उनमेंसे जो अपने उद्देश्यको लक्षमें रखता है वही अपने व्रत-नियमादिकी रक्षा कर सकता है। अतः अपने ब्रह्मचर्यकी रक्षाके आकांक्षिओंको ऐसे आहारविहारसे सर्वथा दूर रहना चाहिए जिनका जिक्र ऊपर किया जा चुका है।
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आठवाँ स्थान परिमित आहारसंबंधी है। अर्थात् स्वस्थ मनवाले साधुओंको संयमकी यात्राके लिए समय पर भिक्षासे मिलाहुआ निर्दोष एवं परिमित अन्न व्यवहारके लाना चाहिए; परन्तु विना कारण ज्यादा आहार नहीं करना चाहिए । यहाँ " विना कारण" लिखनेका मतलब यह है कि लम्बा विहार करना हो, अटवीपार करनी हो अथवा बड़ी तपस्या करनी हो तो पेट भरके खालेना चाहिए; इससे आज्ञा भंग नहीं होती, परन्तु यदि कोई भिक्षामें आया हुआ स्वादके कारण-जिहेन्द्रियकी लालसाके वश होकर मात्रासे भी अधिक खाले तो उसमें अवश्य आज्ञाभंगका दोष होता है।
इस बातको जरा गहरे उतर कर सोचेंगे तो हमें मालूम हो जायगा, कि जो धर्मशास्त्रकी आज्ञानुसार आहारविहारादि करता है वह प्रायः रोगादि उपद्रवोंसे दूर रहता है । शास्त्रकार कहते हैं किः--
"अद्धमणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दवस्स दो भाए । वाऊपपियारणहा छब्भागं ऊणगं कुज्जा" ॥
अर्थात्-पेटके छ विभाग हैं उनमेसे तीन विभाग शाकसहित भोजनसे भरो, दो भाग पानीसे भरो और एक भाग वायु आने जानेके लिए खाली रहने दो । अर्थात् ऊनोदरता अवश्य रखनी चाहिए । कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचंद्राचार्य भी योगशास्त्र में
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कहते है कि “ यो मितं मुड़े सं बहु भुढे " ( जो परिमित खाता है वह ज्यादा खाता है। इसके सिवा अल्पाहार ब्रह्म. चर्यकी रक्षामें बहुत सहायता देता है। अल्पाहार भी वही करना उचित है जो भिक्षामें निर्दोष रूपसे मिला हो। साधुओंको चाहिए कि वे किसीके यहाँ न्यौतेसे जीमने न जायें और न वे एक ही घरसे गोचरी ही लें । इसतरह नीमने जाने या एक ही घरपर आहारलेनेसे कैसे कैसे नुकसान होते हैं सो जानने के लिए मेरी लिखी हुई गुरुतत्व दिन्दर्शन नामा पुस्तक पढ़ना चाहिए।
नवमस्थान यह है कि ब्रह्मचर्य में लीन साधुओंको श्रृंगारके लिए सुंदर वस्त्रादिसे शरीरको सुशोभित नहीं करना चाहिए। शरीरकी शोभा बढ़ानेके लिए दाढी मुँछ वगेराको सँवारनेका प्रयत्न भी नहीं करना चाहिए।
साधु होनेके पश्चात् वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरणादि उपकरण क्यों रक्खे जाते हैं ? साधु यदि इसका विचार करते हों तो वे कदापि उनके मोहपाशमें न पड़ें। वस्त्र शीतादि ऋतुमें अग्नि सेवनसे बचनेके लिए, और पात्र भोजनमें जीवजन्तुओंको आनेसे रोकने के लिए और अवसरपर दूसरे साधु
ओंकी सेवा करनेके लिए रक्खे जाते हैं । कम्बल भी जीवोंकी रक्षाके और शीतादिके निवारणके लिए हैं। ओस या कुहरा पड़ता हो तो ऐसे समयमें उसे शरीरपर ओढनेकी आवश्यक्ता
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रहती है। वह ममीनपर बिछानेके लिए भी उपयोगी होता है। इसीतरह रजोहरणादि भी जीवोंकी रक्षाके लिए रक्खे जाते हैं। मगर यदि ऐसी वस्तुओंपर मोह उत्पन्न हो जाता है, तो उनका उचित उपयोग न कर उन्हें सँभालकर रखनेका ही मन होता है। जो साधु शरीरकी शोभाके लिए अधिक टापटीप करते हैं वे सचमुच ही महामोहकी चेष्टा करते हैं । जैसे सिर और पैर, जो शोमाके लिए हैं, वे तो जब पहिलेहीसे नंगे हैं तब फिर वे किसका शृंगार करते है ? उसका शंगार करना व्यर्थकी मोहचेष्टा है । ध्यानपूर्वक विचार करनेसे मालूम होगा कि ऐसी टापटीप अंतरंगमें रहीहुई कामवासना को उत्तेजित करती है। इसलिए साधुओंको चाहिए कि वे ऐसी व्यर्थकी शोभा ओर टापटीपका त्याग करें।
समाधिका दशमस्थान यह है-ब्रह्मचारी साधुको शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श इन पाँच प्रकारके कामगुणोंको सदा त्यागना चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं है कि इन्द्रियों के धर्मको सर्वथैव त्यागना चाहिए । बल्के इसका अर्थ यह है कि, उनमें आसक्ति या रागद्वेष नहीं करना चाहिए। जैसे-श्रोत्रेन्द्रियका विषय शब्द है-सुनना । श्रोत्रेन्द्रियकी विद्यमान अवस्थामें शब्द तो अवश्य कानमें पड़ते ही हैं। परन्तु गधे
और ऊँटके कठोर शब्दमें एवं वीणाकी सुमधुर झंकारमें द्वेष या राग न कर समानवृत्ति रखना ही कामगुणोंका त्यागना है।
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इसी तरहसे पाँचो इन्द्रियोंके विषयोमें भी चाहे वे अच्छे हों या सुरे-राग द्वेष न कर समभाव रखना चाहिए। साधुओंको सदा स्मरणमें रखना चाहिए कि इसतरह कामगुणोंको जीते विना अच्छीतरह ब्रह्मचर्यकी रक्षा नहीं हो सकती है। ___ उक्त समाधिके दशस्थान समस्त दर्शनोंके साधुओंके ध्यानमें रखने योग्य हैं, इतना ही नहीं बल्के जाँच करनेते यह भी ज्ञात होता है, कि शब्दान्तरसे हरेक दर्शनके साधुओंको ऐसे किलेका आश्रय लेनेकी आज्ञा हुई है । देखो दक्षस्मृतिके सातवें अध्यायमें क्या कहा है
"ब्रह्मचर्य सदा रक्षेदष्टया रक्षणं पृथक् । स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणम् ।। संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिर्वत्तिरेव च । एतन्मैथुनमष्टाङ्गं प्रवदन्ति मनीषिणः" ॥ ३२ ॥
अर्थात्-मैथुनके आठ प्रकार हैं-स्मरण, क्रीडा, देखना, गुह्यभाषण, संकल्प, अध्यवसाय और क्रियाकी उत्पत्ति (कुचेष्टा)। इस प्रकार मैथुनके आठ प्रकार हैं । इसलिए ब्रह्मचर्य की रक्षा भी मैथुनके आठ प्रकारसे करनी चाहिए। अर्थात्-उपर्युक्त मैथुनके प्रकारों से दूर रहनेहीसे ब्रह्मचर्यकी रक्षा हो सकती है । इसी प्रकार उशनस्मृतिके तृतीय अध्यायमें भी कहा है:--
"अनन्यदर्शी सततं भवेद् गीतादिनिःस्पृहा । ___नादर्श चैव वीक्षेत न चरेद्दन्तधावनम्" ॥ २० ॥
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अर्थात-साधुको इधर उधर देखना नहीं चाहिए; गीत वगैरहसे निःस्पृह रहना चाहिए; आइनेमें मुँह नहीं देखना चाहिए
और दातून नहीं करना चाहिए अर्थात् शरीरकी शोभाका त्याग करना चाहिए । मनुजी भी मनुस्मृतिके दूसरे अध्यायमें लिखते हैं:
"मात्रा स्वस्त्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् ।
बलवानिन्द्रयग्रामो विद्वांसमपि कर्षति" ॥२१५॥
अर्थात्-माता, बहिन और पुत्रीके साथ भी पुरुषको मनुष्य रहित-एकान्त स्थानमें; एक आसनपर नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियोंका समूह बलवान् होनेसे विद्वानोंको भी विषयकी ओर खींचलेता है।
यह भी समाधिका स्थान या किला नहीं है तो दूसरा क्या है ? इसीतरह भागवतके ग्यारहवें स्कन्धके चौदेहवे अध्यायमें भी कहा है कि:
"स्त्रीणां स्त्रीसंगिनां संगं त्यक्त्वा दूरत आत्मवान् । क्षेमे विविक्त आसीनश्चिन्तयन्मामतन्द्रितः" ॥
अर्थात-आत्महितेच्छु पुरुषोंको चाहिए कि वे स्त्रियोंका और उनके साथियोंका त्याग करके निर्भय-निरुपद्रव स्थानमें रहें और मेरा चिन्तवन करें । इसी स्कन्धमें आगे और कहा है कि
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"न तथाऽस्य भवेत् क्लेशो बन्धश्चान्यप्रसङ्गतः ।
योषित्संगाद्यथा पुंसो यथा तत्संगिसङ्गतः " ॥३०॥
अर्थात्-स्त्रियों की संगतिसे और उनके साथियोंके संसजैसे जितना क्लेश और बंध होता है उतना अन्यपुरुषोंके संस
से नहीं होता । ऊपरकी बातोंसे यह समझ में आगया है, कि हिन्दु शास्त्रोमें भी ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिए माधुओंको अमुक २ नियम पालनेकी आज्ञा दी गई है । इनके सिवा अन्य भी कई नियम हैं जो लगभग उक्त नियमोंसे मिलते जुलते हैं। इसलिए उन्हीं बातोंका पिष्ट पेषण करना हम निरर्थक समझते हैं। बौद्धधर्मशास्त्र क्या कहते हैं ?
इसीतरह बौद्धधर्मग्रंथोंमेंभी बौद्ध साधुओंको ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिए ऐसे ही नियम बताए गये हैं। कहाहै कि:६ यो पन भिक्खु मातुगामेन सहसेय्यं कप्पेय्य पाचित्तियं । ७ यो पन भिक्खु मातुगामस्स उत्तरि छपञ्चवाचाहिं धम्म देसेय्य अञ्बुना पुरिसविग्गहेन, पाचित्तियं ।
( भिक्खु पातिमोक्खं, पाचित्तिया, धम्मा पृ. २५) __ अर्थात्-जो कोई भिक्षु, स्त्रीके साथ एक स्थानमें शयन करता है, वह प्रायश्चित्तका भागी बनता है, और किसी विज्ञ पुरुषकी अनुपस्थितिमें भी यदि कोई साधु किसी स्त्रीको पांच-छ: वाक्योंसे ज्यादा वाक्य कहकर धर्मोपदेश देता है, तो उसे भी प्रायश्चित्तका भागी बनना पड़ता है।
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कितनी सख्त मनाई ! अन्य बुद्धिशाली पुरुषों की अनुपस्थितिमें स्त्रीको धर्मोपदेश देना भी पाप ! प्रायश्चित्त करने योग्य कृत्य!
यह तो एकान्तमें वार्तालाप करनेकी बात हुई परन्तु बौद्धोंके उपर्युक्त ग्रंथमें तो यहाँतक लिख दिया है कि:२१ योपन भिक्खु असम्मतो भिख्खुनियो ओवदेय्य,पाचित्तिय। २२ सम्मतोपि चे भिक्खु अत्थं गते सुरिये भिक्खुनियो
ओवदेय्य, पाचित्तियं । २३ यो पन भिवावु भिक्खुनूपस्सयं उपसङ्कमित्वा भिक्खुनियो ओवदेय्य, पाचित्तियं । (पृ २८)
त-जो भिक्षु संकी सम्मतिके विना साध्वियोंको उपदेश देता है, वह प्रायश्चित्तका भागी होता है । संघकी सम्मति लेकर भी यदि कोई सूर्यास्तके पश्चात् साध्वियोंको उपदेश देता है तो वह भी प्रायश्चित्तका भागी बनता है । इसी तरह कोई साधु विना कारण साध्वियोंके स्थानमें उपस्थित होकर उनको उपदेश देता है तो वह भी प्रायश्चित्तका भागी बनता है। सकारण जाना, किसी साध्वीका रूग्ण होना हो सकता है। इसके सिवा अन्य भी कई नियम स्त्रियोंके संसर्गमें विशेष नहीं रहनेके लिए बौद्धग्रंथों में बताये गये हैं। वे किस लिए ? केवल ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिए । स्त्रियोंका विशेष संसर्ग रखनेवाला मनुष्य-साधु ब्रह्मचर्यको कदापि अखंड नहीं रख. सकता है।
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इसी तरह ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिए उपयुक्त ग्रंथमें बौद्ध साधुओंको भोजनादिमें भी विचार रखनेके नियम बताये गये हैं। जैसे किः३१ अगिलानेन भिक्खुना एको अवसथपिण्डो भुञ्जितब्बो,
ततो चे उत्तीरं भुजेय, पाचित्तियं । ३३ परम्पर भोजने अत्र समया, पाचित्तियं । ३७ यो पन भिक्खु विकाले खादनीयं वा भोजनीयं वा
खादेय्य वा भुभेय्य वा, पाचित्तियं । (पृ० २९-३०)
अर्थात्-अपीडित साधुको आवसथपिंडका ( आवसथ यह बौद्धोंके सांकेतिक विश्रामगृहका नाम है ) एक ही समय भोजन करना चाहिए । जो उससे अधिक भोजन करताहै, वह प्रायश्चित्तका भागी बनता है । पीडादि खास कारण विना वारंवार भोजन करनेवाला साधु भी प्रायश्चित्तका भागी बनता है और जो साधु समय विना-अनियमित समयमें खाद्यपदार्थ खाता है वह भी प्रायश्चित्तका भागी बनता है।
इसी प्रकार घी, दूध, दही, तैल, गुड आदि गरिष्ठ पदार्थ खानेका भी बौद्ध साधुओंके लिए निषेध किया गया है।
ये सब नियम केवल ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिए ही बनाये गये हैं; इन सब नियमोंकी रचना इसी लिए की गई है कि-इन्द्रियोंको किसी प्रकारकी उत्तेजना न मिले और विना प्रयास ही उनका दमन हो जाय । जो साधु इन नियमोंका उल्लंघन करते हैं-इन
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नियमोंका पालन नहीं करते हैं, वे मन, वचन और कायासे ब्रह्मचर्यका पालन भी नहीं कर सकते हैं।
साधुओंके लिए इतने कठोर नियम बनानेका कारण यही है कि चारित्रका-साधुत्वका-भूषण मात्र एक ब्रह्मचर्य ही है । कोई साधु हजारों प्रकारकी क्रियाएँ करता हो; केशका लोच करता हो, कठोर तपस्याएँ करता हो; अथवा गंगातट पर जाकर पंचाग्नि तापनेका कष्ट सहता हो, वही यदि एक ब्रह्मचर्यका पालन नहीं करता हो, तो उसकी तमाम क्रियाएँ व्यर्थ हो जाती हैं। ब्रह्मचर्यसे परिभ्रष्ट साधु अपने जीवनको खराब करते हैं और भविष्यकी योनिमें उनको नरकादिके कष्ट सहने पड़ते हैं । शातातपस्मृतिके १९ वें अध्यायमें कहा है किः
“यस्तु प्रव्रजितो भूत्वा पुनः सेवेत मैथुनम् ।
षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः" ॥ ६० ॥
अर्थात्-दीक्षा लेनेके पश्चात्--संन्यासी होनेके पश्चात्-जो मनुष्य पुनः विषय सेवन करता है, वह साठ हजार वर्ष तक विष्ठाका कीड़ा रहता है।
इसी तरह प्रत्येक धर्म शास्त्रने ब्रह्मचर्य-मंगके भयंकर दुःख बताए हैं । और यह बात है भी वास्तविक । कारण कि-साधु उच्च कोटिकी अवस्था है । ऐसी अवस्था धारण करनेके पश्चात् भी जो गुप्तरूपसे ऐसी नीचताके कार्य करते हैं, उनके लिये संसारमें इससे ज्यादा दूसरा घोर पाप और कौनसा होसकता है।
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सचमुच ही जो लोग साधुका वेष धारण कर-साधु बनकरब्रह्मचर्यका भंग करते हैं, वे मानो थूके हुएको चाटनेका प्रयत्न करते हैं । जिस वस्तु का एक वार त्याग कर दिया है उसी वस्तुका फिरसे उपयोग करना थूके हुए को चाटना ही है ।
साधुमात्र-चाहे वे किसी दर्शनके या ज्ञातिके हों-के लिए ब्रह्मचर्य पालने के नियम एकसे बताये गये हैं। किसी भी दर्शनवालोंने या पंथवालोंने साधुको विषय-सेवनकी छूट नहीं दी है। हिन्दुधर्ममें कुटीचक, बहुदक, हंस और परमहंस ऐसे चार विभाग हैं; और चारोंके आचार विचारों में भेद हैं; पान्तु उनमें भी ब्रह्मचर्यका भेद तो बिलकुल ही नहीं है। यानी प्रत्येक दर्शनवालोंने ब्रह्मचर्य पालनेकी आज्ञा दी है । कमसेकम यह आज्ञा तो प्रत्येक मनुष्यको पालनी ही चाहिए । जैन साधुओंको अमुक अमुक क्रियाएँ करनेकी सख्त आज्ञा है । जैसे कि-प्रत्येक साधुको लोच करना ही चाहिए आदि; मगर उसमें रोग आदिके कारण छूट भी दी गई है । परन्तु ब्रह्मचर्य में किसीको भी छूट नहीं दी गई है । अर्थात् ऐसी आज्ञा दी गई है कि सब अवस्थाओंमे ब्रह्मचर्यका पालन करना जरूरी है। ___ जो साधु अपना वीर्य किसी प्रकारसे भी नाश नहीं करता है और सर्वथा ब्रह्मचर्यका पालन करता है, उस साधुको मानसिक
और शारीरिक दोनों प्रकारकी उत्तम शक्तियाँ प्राप्त होती है। उसे कभी रोगग्रस्त होकर औषध लेनेकी जरूरत नहीं पड़ती है।
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वह अपना निश्चित किया हुआ कार्य अच्छी तरहसे पूरा करता अगर हम वर्तमान स्थितिपर ध्यान देते हैं, तो हमें कितने ही नामधारी साधुओंके-संन्यासियोंके ब्रह्मचर्यके लिए शंका उत्पन्न होती है । अशक्ति, खाँसी, दमा, छातीका दर्द, दिमागका खाली होजाना वगैरा कारण दिखाकर साधु चंद्रोदय, वसन्तमालती, मोतीकी भस्म, ताम्रभस्म और याकूति वगैरा दवाइयोंका सेवन करते हैं। इतना ही नहीं बल्के उनपर दूध मलाई वगैरा पौष्टिक पदार्थोंका भी-जो साधुओंके लिए निषेध है-सेवन करते हैं। इसका कारण क्या होना चाहिए ? यदि वे अपने वीर्यका नाश न करते हों, यदि ब्रह्मचर्यके भंग करनेकी इच्छा नहो-कामसेवनकी इच्छा न हो तो कदापि वे ऐसी दवाइयोंका और ऊपरसे ऐसे गरिष्ठ पदार्थों का सेवन न करें ? क्या वीर्यकी रक्षा औषधियों से कम शक्ति देनेवाली है ? कदापि नहीं । वीर्यरक्षासे किसी प्रकारके रोगको आनेका अवकाश नहीं मिलता है। इतना ही नहीं परन्तु स्थाई रूपसे रहे हुए श्वास, कास, क्षय और प्रमेहादि रोग भी वीर्यरक्षासे दूर हो जाते हैं । सच तो यह है कि ब्रह्मचारीको न तो औषधोपचार करनेकी आवश्यकता है और न इधर उधर दौड़ धामकरने हीकी । मगर दुःखकी बात तो यह है कि मनुष्य ब्रह्मचर्यकी रक्षाही नहीं करता। इससे हमारे कथनका यह मतलब नहीं है कि हवा, पानी आदि शरीर-रक्षामें कारणभूत नहीं हैं। कारणभूत अवश्य हैं । हमारा अभिप्राय यह है कि रोगी मनुष्य
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चाहे कैसे ही उत्तम वायुका सेवन करे मगर यदि वह वीर्यकी रक्षा नहीं करेगा तो उस उत्तम वायुका सेवन उसके लिए कुछ भी लाभदायक नहीं होगा। इसलिए साधु साध्वियोंको चाहिए कि वे उपर्युक्त नियम ध्यानमें रखें और अपने शरीरकी रक्षाके लिए ब्रह्मचर्यका बराबर पासन करें । गृहस्थियोंके पालनेका ब्रह्मचर्य । ____ अब हम गृहस्थियोंके पालने योग्य नियमकी ओर ध्यान देंगे। गृहस्थोंकी गृहस्थाईका मूल कारण भी ब्रह्मचर्यही है। अर्थात् गृहस्थी भी यदि अपने अधिकारमें रहते हैं-अपनी मर्यादामें रहते हैं तो वे गृहस्थावस्थाका उचित सुख अनुभव कर सकते हैं; अन्यथा उनको अपना जीवन बड़े भारी दुःख के साथ व्यतीत करना पड़ता है। संसारमें जन्म धारणफर जो मनुष्य अपनी मर्यादामें नहीं रहता है, वह रातदिन शोक, भय और चिन्तामें ही अपना जीवन बिताता है । ऐसे भी कई मनुष्य हमारे नजर आते हैं कि जिन बिचारोंने जीवनभर कभी शरीरका सुख देखा ही नहीं है । इसका कारण यही है कि, उनको प्रथमहीसे-जन्महीसे जिस तरह रहना चाहिए था उस तरह वे नहीं रहे । इसी लिए खास तरहसे यह कहा जाता है कि मनुष्यको अपने जीवनका पाया ऐसा मजबूत बनाना चाहिए कि-निससे उसे अपनी जीवनरूपी इमारतके लिए कभी किसी तरहका भय न रखना पड़े।
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जिस प्रकार मकान बनानेवाले मकानके पायेको मजबूत बनाते हैं, उसी प्रकार इस शरीरके जीवनका पाया भी वीर्यकी रक्षाकरके मजबूत बनाना चाहिए और इसी हेतुसे हिन्दुधर्मशास्त्रों में मनुष्यजीवनके चार विभाग किये गये हैं। वे विभाग आश्रमोंके नामसे पहचाने जाते हैं। उनमेंसे प्रथम विभागका नाम ब्रह्मचर्याश्रम रक्खा गया है। कमसेकम वीयरक्षा कहाँतक करनी चाहिए ? ___बालकोंको, अमुक वर्षांतक गुरुके समागममें रखकर ब्रह्मचर्य पालनपूर्वक विद्या संपादन कराना ब्रह्मचर्याश्रम है। अभी इस ब्रह्मचर्याश्रम अवस्थानुसार वर्ताव करनेवाले कितने मनुष्य हैं ? पूर्व समयमें यह नियम था कि, माता-पिता अपने बालकोंको आठ वर्ष तक अपने पास रखते थे । तत्पश्चात् वे उनको गुरुके पास भेज देते थे। वे पचीस वर्ष तक वहीं रहते थे और ब्रह्मचर्यकी रक्षा करते हुए विद्याध्ययन करते थे। हिन्दुधर्मशास्त्रोंके " छांदोग्य उपनिषद् " का अभिप्राय है कि “ बच्चे पांच वर्षकी वय होने तक माताके पास और आठ वर्ष की वय तक पिताके पास रहें । तत्पश्चात् लड़का नौसे लेकर ज्यादासे ज्यादा ४८ वर्ष तक और कमसे कम २५ वर्षतक तथा कन्या ९ से लेकर ज्यादासे ज्यादा २४ वर्ष तक और कमसे कम १६ वर्ष की वयतक गुरुके पास रहकर जितेन्द्रियतापूर्वक विद्या संपादन करे।जो पुत्रपुत्री इस तरह विद्वान् बनते हैं वे ही धर्म, अर्थ और कामके
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सारे व्यवहारोंका उचित उपभोग करके परमानंद-मोक्षकी प्राप्ति कर सकते हैं।"
उपनिषदके उपर्युक्त अभिप्रायसे यह बात तो स्पष्टतया समझमें आजाती है कि, पुरुषको कमसे कम २५ वर्ष तक और स्त्रीको कमसे कम १६ वर्ष तक अवश्यमेव ब्रह्मचर्य पालना चाहिये ।
उपनिषदके उपर्युक्त अभिप्रायानुसार चलनेवाला मनुष्य अपने शरीरको इतना मजबूत बना लेता है कि, उसे भविष्यके जीवन में नुकसान नहीं उठाना पड़ता है। ब्रह्मचर्य पालनेका यह नियम शरीरशास्त्र के नियमोंसे बिलकुल मिलता हुआ है । शरीरशास्त्रके नियमानुसार कहा जाता है कि-" मनुष्यके शरीरमें सात धातु हैं १ रस, २ रुधिर, ३ मांस, ४ मज्जा, ५ मेद, ६ अस्थि, ७ वीर्य । इन सातों धातुओमें पचीस वर्ष तक वृद्धि होती रहती है और २५ से १० वर्ष तक ये धातु पुष्ट होते हुए यौवनका पोषण करती हैं। इतनी ही उभरमें शरीरका कद बराबर बंधकर तैयार हो जाता है । तत्पश्चात् उसमें क्षीणता आने लगती है; धीरे २ लगभग सौ वर्षमें इस शरीरका नाश हो जाता है।
जैनधर्मशास्त्रोंमें भी उपर्युक्त नियमानुकूल ही नियम बताये • गये हैं। जैनागमोंमें भी जगह २ "जोवणगमणमणुपत्ता" ऐसे वचन लिखे मिलते हैं । अर्थात् जब स्त्री और पुरुष युवास्थाको प्राप्त हो जाय तब ही उनका लग्न करना चाहिए। 'प्रवचनसारोद्धार' में कहा है कि-१६ वर्षकी स्त्रीको २५ वर्षके पुरुषके संयो
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गसे जो संतति उत्पन्न होती है वही बलिष्ठ होती है । (इस वाक्यसे बालविवाह और वृद्धविवाहका भी निषेध होजाता है।)
इस नियम पर ध्यान देनेवालेको यह तो निश्चित रूपसे मालूम हो जायगा कि शरीरका संगठन २५ वर्ष तक होता रहता है। इस अवस्थाके बीचमें यदि कोई शरीरके नाशका उपाय करे तो कहना पड़ेगा कि वह नियमको ही नहीं तोड़ रहा है, बल्के वह कुदरतसे युद्ध करनेको तैयार हुआ है । जिस समय तालाबमें एक तरफसे पानी आता हो उसी समय दूसरी ओरसे यदि कोई पानीको निकाल दे तो क्या वह तालाब कभी निर्मल जलसे भरा हुआ देखनको मिलेगा ? आम खानेकी इच्छासे कोई उसका दरख्त लगावे और जिप्त समय उसकी जड़ मजबूत होने लगे उस समय यदि वह उस पर कुल्हाड़ी मारने लगे तो क्या वह उस आमका फल खा सकता है ? नरा देखो कि वर्तमानमें ब्रह्मचर्य की कैसी बुरी हालत हो रही है । बच्चे आठ दश वर्षकी आयुमें ही वीर्यका क्षय करने लग जाते हैं । कितने ही माता पिता अपने बच्चोंको छोटीसी उमरमें ही लग्नकी गाँठमें बाँध देते हैं । उन्हें किसी बिचारी गुडिया जैसी जरासी लड़कीका पति बननेका सौभाग्य प्राप्त करा देते हैं । फिर इन गुडियोंके खेलका परिणाम यह होता है कि, वह लड़का पंद्रह वर्षकी उम्रमें तो कुत्तेके पिल्ले जैसे बच्चेका बाप बन बैठता है और वह कच्चीकलीके सदृश ११-१२ वर्षकी कोमल बालिका बच्चेकी माँ
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कहलाने लगती है। इससे अधिक अफसोसकी दूसरी और कौनसी बात हो सकती है ! शारीरक स्थितियोंको जाननेवाले पूर्वपुरुष-मुश्रुत जैसे आचार्य कमसे कम २५ से लेकर ४० वर्षकी उम्र तकमें संसार में पड़नेका, गृहस्थाश्रमी बननेका अर्थात् लग्न करनेका समय बताते हैं, परन्तु आजकल छोकरे के बाप बननेके उम्मेदवार चौदह या पंद्रह वर्षकी उम्रमें हीउम्मेदवारीमें सफलता प्राप्त कर लेते हैं। समयकी कैसी बलिहारी है ! यह तो हम सहज हीमें समझ सकते हैं कि जिनका वीर्य अभी बंधना शुरु भी नहीं हुआ है, ऐसे वीर्यसे पैदा होनेवाली संतान कितनी दीर्घायुषी और बलवान् हो सकती है ? सुप्रसिद्ध ग्रंय चरकका मत है कि:
"उनषोडशवर्षायामप्राप्तः पंचविंशतिम् । यद्याधत्ते पुमान् गर्भ कुक्षिस्थः स विपद्यते ॥ १ ॥ जातो वा न चिरं जीवेभीवेद्वा दुर्बलेन्द्रियः। ............................................" ! २ ।।
सोलह वर्ष तक ब्रह्मचर्यका पालन नहीं करनेवाली स्त्री यदि पचीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य नहीं पालनेवाले पुरुषसे गर्भ धारण करती है तो उससे कभी संतति उत्पन्न नहीं होती है; और यदि हो भी जाती है, तो वह दीर्घायुषी नहीं होती है । अर्थात वह जल्दी ही मर जाती है । दैवयोगसे आयुकी प्रबलताके कारण यदि वह जीवित रह भी जाती है तो वह दुर्बलेन्द्रिय-कमजोर -तो अवश्य ही रहती है।
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वर्तमानके युवक और बालकोंकी स्थिति । ___अपरिपक्व वीर्यसे संतति उत्पन्न करनेकी आशा ऐसी ही असंभव और व्यर्थ है, जैसी कि सड़े हुए अनाजसे उत्तम अनान पैदा करनेकी आशा व्यर्थ है । यह बात अक्षरशः सच्ची है। इसलिए बच्चों के मातापिताको चाहिए कि वे इस बातकी ओर ध्यान दें और कमसे कम पचीस वर्षकी उम्र तक ब्रह्मचर्यका पालन करवाये विना वे कदापि अपने बच्चोंको लग्नपासमें न बाँधे। जो माता-पिता हरसमय अपने बालकोंके सुखके लिए खड़े रहते हैं-प्रयत्न करते हैं वे ही पुत्रवधूका मुँह देख अपनी इच्छा तृप्त करनेके लिए अपने प्पारे बच्चे के जीवनके सुख पर कंटक बोते हुए जरा भी नहीं हिचकिचाते हैं। वे बाल्यावस्था में लग्न करनेसे क्या हानि होगी इसका कुछ भी विचार नहीं करते । वे केवल अपनी इच्छा पूर्ण करने के लिए तैयार रहते हैं । पीछेसे लड़का जब सिरके दर्दसे व छातीके दर्द से पीड़ित होता है; उसपर जब कई रोग आक्रमण करते हैं, तब वे उसे धातुओंकी भस्म खिलाते हैं और दूध औटा औटाकर पिलाते हैं। परन्तु लड़का गुप्तरूपसे किस तरह अपने शरीरका नाश कर रहा है इस बातकी तरफ वे कभी ध्यान नहीं देते । शरीरकी ऐसी खराब दशा हो जाने पर भी वे स्पष्टतया शब्दान्तरसे समझाकर उस लड़के को दो चार सालके लिए उस गुडियाके-अपनी बहुकेपास जानेसे नहीं रोकते । जो मनुष्य शरीर निचोड़ निचोड़ कर
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वीर्यका नाश करता है उसके शरीरको केशरिया दूध या ताँवेकी मस्म आदि क्या फायदा पहुंचा सकते हैं ? बाल्यावस्थामें विषय-सेवनकी मर्यादाको नहीं समझनेवाले और स्त्रीको देखकर पागल हो जानेवाले बालकों को क्या विवाह होनेके पश्चात् अल्प समयमें ही अपने आयुष्यकी 'इतिश्री' करते हुए हम नहीं देखते हैं ? क्या हमने ऐसे पुरुष नहीं देखे हैं कि शरीरमेंसे वीर्यका नाश हो जानेके कारण इधर उधर मासिक और साप्ताहिक पत्रोंमें वीर्य-वर्धक दवाइयों के विज्ञापन पढते फिरते हैं। क्या हमने ऐसे युवक नहीं देखे हैं जो विषय-सेवनकी मर्यादाको तिलांजली दे; अपनी स्त्रीसे भी असंतोष हो नशेवाजोंकी तरह इधर उधर भटकते फिरते हैं । अंतमें उनकी स्थिति बहुत खराब हो जाती है । वे किसीके अंकुशमें नहीं रहते हैं;
और वे निरंकुश होकर धीरे धीरे मांस मदिरादि तक भी पहुँच जाते हैं।
यह तो हमने विवाहित युवकोंकी कथा कही, मगर अविवाहित युवकोंकी दशा तो इनसे भी बहुत ज्यादा खराब है। अविवाहित युवकोंके शरीर बहुत मजबूत होने चाहिए, जिससे कि वे अपना अभ्यास भली प्रकार कर सकें; परंतु वर्तमान स्थिति इससे बिल्कुल ही उलटी है । किसी कॉलेज या हाईस्कूलमें अथवा गुजराती-हिन्दीकी उँची क्ललसोंमें जाकर यदि हम विद्यार्थियोंकी शकले देखेंगे तो मालूम होगा कि उनके चेहरे पीले पड़ गये हैं;
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उन पर झुर्रियाँ पड़ गई हैं; उनकी कमरमें टेढापन आगया है
और उनकी आँखोंपर चष्मे लगे हुए हैं । कई पुस्तक आँखोंके नजदीक रखकर पढ़ रहे हैं और कई जरामे परिश्रमसे घबराकर सिर पकड़े हुए बैठे हैं। यदि कोई उनके आंतरिक जीवनकी
ओर दृष्टि डालेगा तो मालूम होगा कि किसीको प्रमेह रोग हो रहा है, किसीकी धातु दुर्बल हो गई है, किसीको स्वप्नदोषकी बीमारी है, किसीकी छातीमें दर्द होता है, किसीके दिमागमें कीड़ा घुस गया है; किसीको गर्मी हो रही है और किसीको विस्फोटक हो रहा है । वे एकाध रोगसे अवश्य घिरे हुए नजर आयँगे । हम सबके लिए ऐसी व्यवस्था नहीं देते, तो भी इतना जरूर है कि ९५ ३ प्रतिशतक ऐसे ही हैं। अफसोस ! पहाडोको भी लात मारने की ताकात रखनेवाली युवावस्थामें हमारे अविवाहित और शिक्षाके कीड़े युवकोंकी यह दशा ! जिन पर देशके उद्धारकी आशा है; जो हिन्दुस्तानके भविष्यके झगमगाते हुए हीरे गिने जाते हैं, उनकी ऐसी दशा ! ऐसे उनके हाड़पिंजर! ऐसे उनके शरीर! स्टेशनसे पाँच शेर वनन लेकर आधमीलके फासलेवाले घरपर जाना होता है, तो विना गाड़ीके घर तक पहुंचना ही जिनके लिए मुश्किल हो जाता है; और जो जरासी दूर चलकर श्वासोच्छ्रासकी धौंकनी चलाने लग जाते है हॉफने लग जाते हैं । ऐसे क्या भारतवर्षका उद्धार करेंगे ? एक अनुभवी ने कहा है कि:-" जिन युवकोंने शिक्षा प्राप्त
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करली है ऐसे सौ जवान यदि इकठे करोगे और जाँच करोगे तो उनमेंसे ऐसे बहुत कम मिलेंगे जिनकी रीढ टेढी न होगी; जिनकी छाती चौड़ी और जिनका मुँह भरा होगा; जो मजबूत भुजदंडवाले होंगे और बतखके जैसी जिनकी गरदन पतली न होगी; और तो क्या मगर सौमेंसे पाँच भी ऐसे नहीं मिलेंगे। ___ वर्तमान कालमें हजारमेंसे सौ तो क्या परन्तु पाँच लड़के भी जो कि विद्यार्थी अवस्थामें हैं, ऐसे नहीं निकलेंगे कि जिनका मुख तेजस्वी और प्रफुल्ल हो; जिनके नेत्र चमकते हुए और आबदार हों जो हरिणकी तरह चपलतासे दौड़नेवाले हों; जिनके शरीर सींगके सदृश पुष्ट और सर्वांग सुंदर हों; और कभी सिर दुखनेकी दुर्बलताकी और स्मरणशक्तिकी कमजोरीकी चिल्लाहट नहीं करते हों । और यह बात भी सच है, कि वर्तमानमें लड़कोंकी और युवकोंकी हालत ऐसी खराब हो रही है कि जिसको हम दयाजनक हालत बता सकते हैं। क्या उनको पेटभर खाना नहीं मिलता ? क्या उनको खाने के लिए दूध दहीं आदि पौष्टिक पदार्थ नहीं मिलते ? अथवा वर्तमानकी शिक्षामें ही ऐसे दोष हैं ! कि जिनसे विद्यार्थियों के शरीरमें ऐसे अनिष्ट रोग उत्पन्न होजाते हैं ? हमें इस बातकी खोज करना अति आवश्यक है । ___हमारी दृष्टि से-समझसे उपर्युक्त बताए हुए सब कारण व्यर्थ हैं । प्रत्येक मनुष्य सदा अपनी शक्तिके अनुसार भोजन करता
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है। खुराक लेता है । इस लिए हम यह बात तो नहीं मान सकते कि खुराक न मिलनेके कारण वे सब अनर्थकर्ता उत्पन्न होते हैं। अगर कुछ समयके लिये गरीबों के लिये यह बात मान भी लें तो भी अच्छे अच्छे मालदार गृहस्थोंके लड़कोंके लिए यह बात कैसे मान सकते हैं। क्योंकि वे बहुत बढ़िया खुराक खाते हैं। रोज केशरिया दूध पीते हैं, बादामका हलवा खाते हैं और अन्य भी कई तरहके अच्छे अच्छे माल मलीदे उड़ाते हैं । ऐसा होने पर भी हम यही देखते हैं कि पैसेदारोंके लड़के ही सबसे ज्यादा रोगके ग्रास बने हुए हैं । गरीबोंके लड़के यद्यपि सूखी रूखी रोटी खाकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं, तो भी वे दिन दूने और रात चौगुने बढ़ते ही जाते हैं । इस लिए हम यह नहीं कह सकते कि अशक्ति उत्पन्न होनेका कारण कीमती खुगक की कमी है। अगर हम यह समझें कि शिक्षा की अपूर्णता विद्यार्थियोंके शरीर में रोग उत्पन्न करती है तो वह समझ सर्वथा झूठी है । हाँ यह बात अवश्य है, कि उससे विद्यार्थीके भविज्यका जीवन आर्थिक सफलतामें उत्तीर्ण नहीं होता, वह आर्थिक स्थितिसे अपना जीवन सुखमय नहीं बना सकता । परन्तु रोग उत्पन्न करने या शरीरको निर्बल बनानेका सामर्थ्य उस विद्यामेंशिक्षामें नहीं है, तो फिर पहाड़को चूर करनेवाली जवानीमें मनुष्य ऐसे दुर्बल और रोगी क्यों हो गये हैं ? इन सबका कारण बाल्यावस्थाकी पड़ी हुई खराब आदत है ।
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बाल्यावस्थामें पड़नेवाली बुरी आदतें । ___ संसारी जीवोंमें विषय-सेवन की प्रवृत्ति अनादि कालसे चली आरही है । यानी कुदरती नियमके अनुसार मनुष्की प्रवृत्ति उसकी ओर झुकी हुई रहती ही है। इसमें भी वासनासे संबंधरखनेवाली जो आवाजें कानमें पड़ती हैं वे और विषयसे संबंध रखनेवाली जो चेष्टाएँ दृष्टिमें आती हैं वे तो कोमल बालकोंके मनमें विषयका विष डालती हैं; उनके माता-पिता इस बातकी ओर बहुत कम ध्यान देते हैं । ध्यान न देनेके कारण परिणाम यह होता है, कि लड़कोंको स्वच्छंदता प्राप्त हो जाती है और वे अनेक बुरी आदतों के ग्रास बन जाते हैं। ऐसी बुरी आदते लड़कों
और युवकों की ही नही बल्के लड़कियों और स्त्रियोंकी भी पड़ जाती हैं। इनमें से बड़ीसे बड़ी और ज्यादासे ज्यादा खराब करनेवाली बुरी आदत " हाथोंसे वीर्यका नाश करना " है। इसको कई वैद्य ' हथरस' के नाम से पुकारते हैं। मनुष्य ऐसी बुरी आदतके वश होकर अपनी जवानीको तकदीली जवानी बना लेते हैं । इतनी खराबीसे ही इसकी इति श्री नहीं होती; वे अपने जीवनको भी इसके द्वारा बहुत ही जल्दी मृत्युके मुखमें खींच लेजाते हैं । कॉलेन और हाईस्कूलके विद्यार्थी युवकों की ऐसी दशा होनेका यही मुख्य कारण है । शरीर और मनकी शोचनीय दशा बनानेवाली भी यही बुरी आदत है । इस दुराचरणके कारण मनुष्यकी जितनी खराबी होती है। उसका
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स्पष्ट शब्दोंमें वर्णन करना सभ्य संसारमें असभ्यताका अवतार धारण करना है । यह दुराचार पापीमें पापी है और मनुष्य जीवनका सर्वनाश करने में कुशल है। यह जिस पर एक दफा अधिकार प्राप्त कर लेता है, उसकी थोड़े ही समयमें बरबादी हो जाती है । जिस अवस्थामें सारे जीवनके सुखका पाया वीर्यकी रक्षा करके मजबूत करना होता है, उसी अवस्थामें यदि मनुष्य उसकी रक्षा न कर उसका नाश कर देता है, तो उसके जैसा दुर्बुद्धिपूर्ण दूसरा कौनसा कार्य हो सकता है ! क्या मातापिताका यह खास कर्तव्य नहीं है कि वे ऐसी नादानी करनेवाले अपने नादान और मूर्ख लड़कोंको समझावे ? ऐसे कुचालसे उन्हें बचावे ? परन्तु खेद है कि, माता-पिता इस बातकी तरफ बहुत ही कम ध्यान देते हैं । लड़के और युवक, सच्ची बात लज्जाके मारे माता-पिताको कह नहीं सकते; परन्तु जव वे छातीका दुखना, चक्कर आना या सिरमें दर्द होना वगैरा बातें उनके आगे (माता-पिताके आगे) कहते हैं, तब माता-पिता, ऐसे रोगोंका कारण ज्यादा अभ्यास करना समझ, या तो अमुक समय तकके लिए उनका पढ़ना बंद कर देते हैं या बिलकुल ही उनका पढ़ना छुड़ा देते हैं । औटा औटाकर उन्हें दूध पिलाते हैं। कई इससे भी ज्यादा स्नेह बताते हैं । लड़कोंकी डॉक्टरके पाससे चिकित्सा करवाते हैं; और डॉक्टरको कहते हैं कि बहुत अभ्यास करनेसे इसके दिमागमें गरमी चढ़ गई है इसलिए इसे
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कोई ठंडी चीन दीजिए । डॉक्टर साहेब कॉलनवॉटर लगानेके लिये अथवा तो बरफका टुकड़ा सिरपर रखनेके लिये कह देते हैं । चलो छुट्टी हुई ! पाता-पिता समझ लेते हैं कि अब रोग गया । लड़कोंके लिये माता-पिताका यह कैसा अच्छा आशीर्वाद है ! सुज्ञ पाठको ! आप अब यह तो अच्छी तरह समझ गये होंगे कि माता-पिता मूल रोगकी खोज करने में बिलकुल ध्यान नहीं देते हैं । ऐसी स्थितिमें युवक चलने में यदि अस्सी वर्षके बूढेके सदृश चलें; बोलनेमें मरने पड़ीहुई बुढ़ियाकी तरह बोलें, और शरीरमें सुदामा जैसे दिखाईदें, तो इसमें आश्चर्यकी क्या बात है ? और वे बिचारे शरीरका किञ्चित् मात्र भी सुख अनुभव न कर सकें तो इसमें किसका अपराध है ? और उनके अमूल्य जीवनका अल्प समयमें ही पूर्ण हो जाना भी कोई आश्चर्योत्पादक घटना नहीं है ! पेटमें दर्द होना; दाँतों का सड़ जाना; बालोंका सफेद होजाना; शरीरका पीला पड़ जाना; आँखोंका अंदर घुस जाना; दिनभर उदासीनताका रहना और चहरे पर झुर्रियोंका पड़ जाना वगैरा रोग तो ऐसे युवकोंके साधारण तौरसे हमेशाके लिए ही रहते हैं । इस कुटेवके कारण कई धीरे २ पुरुषत्वविहीन होकर नपुंसक भी हो जाते हैं। ऐमा होने पर भी जो अपनी कुचालोंको नहीं छोड़ते हैं और उसीमें अपना जीवन व्यतीत करते हैं, वे धीरे धीरे क्षयरोगके ग्रास बन जाते हैं । देखिए हथलसकी बुरी आदतसे ऐसे कितने ही अनिष्ट
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रोग उत्पन्न हो जाते हैं, कि जिनके कारण मनुष्यका सब कुछ नाश हो जाता है । एक अनुभवी वैद्यने कहा है कि:-"जिसको जीतेनी मुर्दा बनना हो; जिसको तन्दुरस्तसे रोगी बनना हो जिसको स्वास्थ्य, सुंदरता, लावण्य और नीतिको अपने अपने अंतःकरणसे हटा देना हो; जिसको रोगी, कुरूप
और प्रमादी बनना हो; उसके लिए हथलस एक उत्तम मित्र है ।" अपने ही हाथसे अपना नाश करनेके लिए इसके सिवाय और कौनसा उत्तम उपाय मिल सकता है ?
कई विद्वान कहते हैं कि इस बुरी आदतके कारण कई पुरुष पागल भी हो गये हैं। इसका वे प्रमाण भी देते हैं। कहने का मतलब यह है कि यह कुटेव सर्वनाशकी जड़ है । जो लड़के
और युवक इस कुचालमें फँसकर अनिष्ट रोगोंके भोग हो जाने पर भी अपनी खराब आदत नहीं छोड़ते हैं; उनका सर्वनाश जरूर होता है।
सार बात यह है कि, वर्तमान कालके युवक वीर्यका अनादर करते हैं और उसका नाश करते हैं । इसी लिये वे अनेक व्याधियों से पीडित और बलहीन नजर आते हैं । एक विद्वान् वैद्यके मतानुसार-मनुष्य १३ वर्षकी अवस्थासे वीर्यका नाश करनेकी चेष्टा करता है । और १६ वर्षकी अवस्थासे २५ वर्षकी जवस्था तकके युवक ऊपर बताएहुए रोगोंसे आक्रांत दिखाई देते हैं । पाठकोंको सखेद आश्चर्य हुए बिना नहीं रहेगा कि यह
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क्या है ? जो अवस्था हम पहिले ब्रह्मचर्यकी बता चुके हैं, अर्थात् यह बता चुके हैं कि कमसे कम २५ वर्ष तक अवश्यमेव ब्रह्मचर्य पालना चाहिए, वह. अवस्था इस समयमें ब्रह्मचर्य तो क्या मगर यौवनकालमें भी न रही। उसमें तो अब वृद्धावस्था प्रारम्भ हो जाती है । इसमें कोई अत्युक्ति नहीं है । इस लिये प्रत्येक मनुष्यको चाहिए कि वह अपने पुत्रको कमसे कम २५ वर्ष तक और पुत्रीको १६ वर्ष तक विवाह बंधनसे जरूर दूर रक्खे । इतना ही नहीं साथ साथ उनकी सख्त देखरेख रख, उनसे पूर्णतया ब्रह्मचर्यका पालन भी करावे । माता-पिताका कर्तब्य ।।
प्राचीन प्रणालीके अनुसार तो लड़कोंको गुरुके और लड़कियों को गुराणी के (साध्वीके ) समागममें रखकर ब्रह्मचर्य पालनयुक्त विद्याध्ययन करवाना चाहिए । परन्तु वर्तमानमें यह रीति लोप हो जानेके कारण ऐसा प्रबंध होना असंभव है। इसलिए माता-पिताको चाहिए कि वे सन्तानको अपने पास रखते हुए पुत्रसे २५ वर्ष तक और पुत्रीसे १६ वर्ष तक ब्रह्मचर्यका पालन करावें । सन्ताने ब्रह्मचर्यको नष्ट न करदें इसका वे पूरा ध्यान रखें। उनके अंतःकरण पर बुरे संस्कार न पड़ जाय, उनका चित्त विषयकी ओर न झुक जाय इस बातकी भी बड़ी सावधानी रखनी चाहिए । ब्रह्मचारियोंका जीवन एक अच्छे साधु जीवनकी तरह बीतना चाहिए । जैसे-सादा वेष, सादा भोजन और
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जहाँ तक बन सके स्त्रियोंके संसर्गमें बहुत कम आना । मातापिताको इस बात पर भी ध्यान रखना चाहिए कि सन्तान प्रायः निर्मल वातावरणमें रहे । विषयी वातावरणमें नहीं। वारंवार विषयकी बातें सुननेसे और देखनेसे उनके निर्मल अंतःकरणमें विषयरूपी जहर उत्पन्न हो जाता है । इस बात पर मात-पिताको तो ध्यान देना ही चाहिए, परन्तु बालकोंकोभी-जो कुछ समझदार हो गये हैं और जो जीवन को सुखसे व्यतीत करना चाहते हैं-इस बातपर ध्यान देना चाहिए । मैं अपने हाथसे अपना सुख क्यों नष्ट करूँ ? अपनी ही कुल्हाड़ी अपने हाथसे अपने पैरों पर क्यों मारूँ ? ऐसे विचार जिन लड़कोंके हृदयमें उत्पन्न नहीं होते वे अपने जीवनमें कभी सुख नहीं पाते । वे ही सुख पाते हैं जो ऐसे विचार करते हैं और साथ ही तदनुसार वर्ताव भी करते हैं । उपर्युक्त कथनानुसार पुरुष २५ वर्ष तक और स्त्रियाँ १६ वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालनेके पश्चात् ही शास्त्रोक्त मर्यादानुसार गृहस्थ बननेके अधिकारी हो सकते हैं, अन्यथा नहीं। समाजकी झूठी मान्यता। ___आजकल लोगोंकी मान्यताएँ और रूढियाँ बहुत बुरी हो गई हैं । वे कहते हैं कि विवाहके पहिले यदि कन्या रजस्वला हो जाती है, तो बड़ा भारी घोर पाप लगता है। परन्तु ऐसी झुठी मान्यता रखनेवालोंके और कहने वालोंके लिए हम कहेंगे कि वे शास्त्रमर्यादा क्या चीज है सो जानते ही नहीं हैं। हिन्दु
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ओंके बहुमान्य मनुजी भी मनुस्मृतिके नवमाध्यायमें कहते हैं कि:
" त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्यतुमती सती ।
उर्द्ध तु कालादेतस्माद्विन्देत सदृशं पतिम्" ॥१०॥ अर्थात-कन्याको ऋतुमती होनेके पश्चात् तीन वर्ष तक अपनेसे अधिक गुणवाले पतिकी राह देखनी चाहिइ । तीन बर्षमें यदि कोई अधिक गुणवान वर न मिले तो फिर वह समान गुणवालेके साथ व्याह करले ।
इस कथनसे स्पष्ट विदित होता है कि, मनुजी जैसे शास्त्रकार भी ऋतुमती होनेके पश्चात् तीन वर्ष तक विवाह करनेका निषेध करते हैं; परन्तु बिचारे अज्ञान मा-बाप अपनी बालिका
ओंको लोकापवादके डरसे और झूठी मान्यताके कारण ब्याह देते हैं। जीवनभर ब्रह्मचर्य पालनेका प्रभाव ।
हम पहिले यह बात बता चुके हैं कि कमसे कम २५ वर्ष तक पुरुष को और १६ वर्ष तक स्त्रीको अवश्य ही ब्रह्मचर्य पालना चाहिए । चाहे कुछ भी हो, इतनी अवस्था तक तो अवश्यमेव वीर्यकी रक्षा करनी चाहिए। इसके बाद वे गृहस्थाश्रममें जानेके अधिकारी होते हैं । पहिले नहीं । परन्तु हमारी मान्यतानुसार तो मनुष्य यदि अपने जीवनके अन्त तक अस्खलित ब्रह्मचर्य पाले, तो उसके लिए जगत्में ऐसा कोई कार्य नहीं रहै
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निसको वह सिद्ध न कर सके ! मतलब कहनेका यह है, कि अखंड ब्रह्मचर्य पालनेके प्रभावसे वह इतना बलवान् हो जाता है, कि कठिनसे कठिन काम भी कर सकता है। कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यने पाँचवर्षकी उम्रमें दीक्षा ग्रहण की थी और गुरुसेवामें मन लगा यावज्जीवन ब्रह्मचर्यका पालन किया था; इसीलिए वे राजा कुमारपालको उपदेश देकर अपना शिष्य बना सके थे और इसी लिए वे अपने अल्पजीवनमें साढ़े तीन कगेड श्लोकोंकी रचना कर सके थे। जगद्गुरू श्रीहरविजयसूरिने तेरह वर्षकी उम्रमें ही दीक्षा लेकर यावज्जीवन ब्रह्मचर्यका पालन किया था, इसीलिये वे अकबर जैसे बलवान् मुसलमान बादशाहको भी प्रतिबोध देकर •अपना भक्त बना सके थे। सुप्रसिद्ध शंकराचार्यके जीवनचरित्रको जानवाले यह बात
अवश्य जानते हैं, कि उन्होंने जीवनभर ब्रह्मचर्य पाला था इसी कारण वे सारे भरतखंडमें प्रख्यात हुए थे। ऐसे सैंकड़ों उदाहरणोंसे इतिहासोंके और पुराणोंके बड़े बड़े ग्रंथ भरे पड़े हैं । आर्यावर्तमें ऐसा कौनसा मनुष्य है जो भीष्मकी भीष्मप्रतिज्ञा और उसके अलौकिक कार्योंको नहीं जानता है ?
इस बातसे यह न समझना चाहिए कि संसारके सब मनुष्य कँवारे ही रहेंगे और सभी ब्रह्मचर्य पालेंगे । यदि ऐसी स्थिति हो जाय तो संसारमें मनुष्यकी उत्पत्ति ही कैसे हो और संसार का व्यवहार भी कैसे चले ? परन्तु ऐसा कभी न
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हुवा है और न होगा । प्रकृतिके नियमानुसार सब कार्य होते रहते हैं । मनुष्य अपने शरीरका मालिक है । ऐसी बातोंके संबंधमें वह केवल अपने ही लिए विचार कर सकता है। अन्यके लिए नहीं । मनुष्यको यह सोचना चाहिए कि मैं जीवनभर अखंड ब्रह्मचर्यका पालन कर एक वीर पुरुष कैसे बन सकता हूँ ? उसको यह न सोचना चाहिए कि यदि दूसरे भी मेरे जैसे हो जाँयेगे तो दुनीयाका क्या हाल होगा ? कोई मनुष्य जब कपड़ेका, वकालतका या किसी अन्य प्रकारका धंधा-रोजगार शुरू करता है तब वह यह नहीं सोचता है, कि यदि सब लोग यही काम करेंगे तो दूसरे धंधोंका-कामोंका क्या होगा ? वह तो अपने लिए कार्य करता है । कुदरती नियमानुसार संसारके सब कार्य होते रहते हैं; परन्तु हमें वही कार्य करना चाहिए जिसमें लाभ होता हो और साथ ही वह कार्य वास्तवमें अच्छा भी हो। पुत्रप्राप्तिकी इच्छासे ब्रह्मचर्यका नाश करना ।
इस समय एक और भी शंका उत्पन्न होती है कई जगह लिखा है कि,
" अपुत्रस्य गतिनास्ति स्वों नैव च नैव च ।
तस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा स्वर्ग गच्छन्ति मानवाः" ॥१॥ भावार्थ--पुत्रविहीनकी गति ( सद्गति ) नहीं होती; और स्वर्ग तो उसको कभी मिलता ही नहीं। इसलिए पुत्रका मुख
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देखकर मनुष्य स्वर्गमें जाता है। इसका कारण क्या है ? अर्थात जब पुत्ररहित पुरुषकी सद्गति ही नहीं होती है तो फिर लग्न न कर केवल ब्रह्मचर्य पालनेसे क्या लाभ है ? क्योंकि ब्याह किए विना पुत्र नहीं हो सकता है, और पुत्रके विना सद्गति नहीं हो सकती है।
इस शंकामें कुछ भी तथ्य नहीं। इसके लिए हम जरासा गूढ विचार करेंगे तो ज्ञात होगा कि इस वाक्यके तात्पर्य को नहीं समझकर चलनेवालोंने बड़ा अँधेर मचा रक्खा है। इस वाक्यकी दुहाई देकर वे आर्थिक विचारोंको भी तिलांजलि दे, विषयासक्त बने रहते हैं; और मुर्गो, कत्तों और सुअरोंकी तरह संतति बढ़ाते ही रहते हैं । परन्तु ऐसे मनुष्योंको उपर्युक्त वाक्यके साथ ही साथ मनुस्मृतिके पाँचवें अध्यायका यह श्लोक भी ध्यानमें रख लेना चाहिए किः
"अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम् ।
दिवं गतानि विप्राणामकृत्वा कुलसंततिम्"॥१५६।।
अर्थात्-कुलसंतति नहीं होने पर भी, ब्राह्मणोंके अनेक ब्रह्मचारी कुमार स्वर्ग गये ।-~यानी यावज्जीवन ब्रह्मचर्यवस्था पालन करके स्वर्ग गये।
सनक, वालखिली-वगैरा अनेक महानुभावोंके स्वर्गमें जानेकी बातें हिन्दुधर्मके प्राचीन इतिहास साबित करते हैं । यदि “अपुस्य गतिर्नास्ति'' यह नियम सर्वथा सच्चा होता तो मनु
न गया
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जीके कयानानु सार यावज्जीव ब्रह्मचर्य पालनेवाले हनारों ब्रह्मचारी स्वर्गमें न जाते । इतना ही नहीं परन्तु नियोग करके पुत्रकी उत्पत्ति करनेकी अपेक्षा सर्वथा ब्रह्मचर्य पालन मनुनी ज्यादा पसंद करते हैं क्योंकि नियोग अनेक प्रकारके अनर्थ उत्पन्न करता है । मनुनी मनुस्मृतिके पाँचवें अध्यायमें कहते हैं किः
"पाणिग्राहस्य साध्वी स्त्री जीवतो वा मृतस्य वा । पतिलोकमभीप्सन्ती नाचरेकिंचिदप्रियम् ॥१५६॥ कामं तु क्षपयेद्देई पुष्पमूलफलैः शुभैः ।। न तु नामापि गृह्णीयात् पत्यो प्रेते परस्य तु ॥१५७॥ आसीताऽऽमरणाक्षान्ता नियता ब्रह्मचारिणी । यो धर्म एकपवानां काक्षन्ति तमनुत्तमम् ॥१५८॥ मृते भर्तरि साध्वी स्त्री ब्रह्मचर्य व्यवस्थिता । स्वर्ग गच्छन्त्यपुत्रापि यथा ते ब्रह्मचारिणः ।।१६०॥ अपत्यलोभाद् या तु स्त्री भर्तारमतिवर्तते । सेह निन्दामवानोति पतिलोकाश्च हीयते ॥१६१॥ नान्योत्पन्ना प्रजास्तीह न चाप्यन्यपरिग्रहे । न द्वितीयश्च साध्वीनां कचिद्गोपदिश्यते ॥१६२॥ पति हित्वापकृष्टं स्वमुत्कृष्टं या निषेवते । निन्द्यैव सा भवेल्लोके परपूर्वेति चोच्यते ॥१६३॥ व्यभिचारात्तु भर्तुः स्त्री लोके प्रामोति निन्द्यताम् । शृगालयोनि पामोति पापरोगैश्च पीड्यते ॥ १६४ ॥
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पतिं या नाभिचरति मनोवाग्देहसंयता । सा भर्तृलोकमाप्नोति सद्भिः साध्वीति चोच्यते । १६५ ॥ अनेन नारी वृत्तेन मनोवाग्देहसंयता ।
इहाय्यां कीर्तिमाप्नोति पतिलोकं परत्र च " ॥ १६६ ॥ अर्थ - विवाहित पति जीता हो या हो मरगया हो; परन्तु पतिलोककी चाहना करनेवाली कुलवान स्त्री वह कार्य नहीं करती है, जो उसके पतिको अप्रिय होता हैं । अर्थात् - पुत्रकी प्राप्तिके लिये भी वह व्यभिचार सेवन नहीं करती है । १५६ साध्वी- अच्छे आचरणवाली - स्त्रीको चाहिए कि वह कामको और अपने शरीरको पुष्प, मूल और फलके आहार से नाशकर दे परन्तु परपुरुषका नाम भी न ले । १५७ एकपतिवाली स्त्रियों के उत्तमधर्मकी इच्छा करनेवाली स्त्री मरणपर्यंत क्षमाशील और पूर्णरूपले ब्रह्मचारिणी बनकर रहती है । १५८ पतिके परलोक जानेके पश्चात् जो स्त्री ब्रह्मचर्यमें लीन रहती है, वह पुत्रके न होने पर भी स्वर्गमें जाती है । जैसे सनक और वालखिली वगैरे कुमार गये हैं ।
पुत्र के लोभसे जो स्त्री अपने पतिको छोड़ अन्य पुरुषके पास जाती है, वह इस लोकमें निंदाकी पात्र बनती है, और पतिलोकसे भी भ्रष्ट होती है । १६१
अन्य पुरुषसे उत्पन्न कीगई सन्तान नीतिविरुद्ध होनेसे
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अपनी नहीं गिनी जा सकती है । अर्थात् स्त्रीने परपुरुषसे और पुरुषने परस्त्रीसे पैदा की हुई संतति उसकी नहीं गिनी जाती है। साध्वी स्त्रियोंके लिए अन्य पुरुषके पास जानेका किसी जगह उपदेश नहीं दिया गया है । १६२ _____ अपने दुर्बल पतिको छोड़ जो स्त्री सबल पुरुषका सेवन करती है, वह इस लोकमें निंदाके पात्र बनती है । अर्थात् " लोगोंमें ऐसी बातें होती हैं कि अमुकने पति छोड़ दूसरा किया "। १६३ ___ अपने पतिको छोड़ अन्य पुरुषके पास जानेवाली स्त्री इस लोकमें निंदाकी पात्र बनती है और भवान्तरमें-दूसरे जन्ममें सियालिनी-शृगालिनी-बनती है तथा कुष्ठादि रोगोंसे पीडित होती है। १६४
जो स्त्री अपने पतिको नहीं छोड़ती है। मन, वचन और कायसे-शरीरसे उसकी आज्ञामें रहती है, वह अवश्यमेव स्वर्गलोकमें जाती है, विद्वान् उसीको साध्वी स्त्री कहते हैं । १६५ ___स्त्रियोंके योग्य शुद्ध आचरणसे चलनेवाली और मन, वचन, कायसे पवित्र रहनेवाली स्त्री, इस लोक में उत्तम कीर्तिको प्राप्त करती है, और परलोकमें-पतिलोकमें पतिके साथ स्वर्गमें जाती है । १६६
उपर्युक्त श्लोकोंके भावार्थसे हम यह तो भली प्रकार समझ सकते हैं कि, पुत्रकी इच्छासे ब्रह्मचर्यका नाश करना किसी तर.
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हसे भी योग्य नहीं है । अर्थात्-पुत्रके न होनेसे सद्गति नहीं होती है, ऐसी इच्छासे जो मनुष्य ब्रह्मचर्यभंग करनेको तत्पर होता है, वह वास्तवमें बड़ी भारी भूल करता है और ऐसे झूठे भ्रमसे वह मनुष्य-जीवनके महत्त्वको खो बैठता है । इसके सिवा कई मनुष्य एक दो पुत्र होते हुए भी ज्यादा पुत्र उत्पन्न करनेकी भ्रांतिमें पड़ जाते हैं । उनकी उस भ्रांत कृतिसे शरीरको और देशकी आर्थिक स्थितिको कितना नुकसान पहुंचता है, इसका विचार हम आगे करेंगे । यहाँ इतना ही कह देते हैं कि, बहुत ज्यादह नुकसान पहुंचता हैं । जो सर्वथा यावज्जीवनब्रह्मचर्य पालनमें असमर्थ होते हैं; उन पुरुषोंको कमसे कम २५ वर्षके पीछे और स्त्रियोंको कमसे कम १६ वर्ष बाद लग्न करना चाहिए। जैसा कि हम पहिले बता चुके हैं। लग्न किसके साथ करना चाहिए ? ___लग्न करनेवालोंको पहिले लग्न करनेका मुख्य हेतु समझना चाहिए । यह बात सच है कि, संसारमें गृहस्थोंके लिए तीन पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ और काम-की साधना करना कहा गया है और चौथे पुरुषार्थ-मोक्षके अधिकारी मुमुक्षु-साधु बताये गये हैं। कई लोग यह भी नहीं जानते कि- 'काम' पुरुषार्थ किसे कहते हैं और उसकी साधना कैसे करनी चाहिए। इससे वे अनजान मनुष्य काम पुरुषार्थ-साधनाकी चेष्टामें अपने जीवनको नष्ट करते हैं। वर्तमानमें जो मनुष्य काम पुरुषार्थकी साधना
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करते हुए नजर आते हैं, उनमें से प्रायः बहुतसे ऐसे ही हैं । हनारों ही नहीं बल्के लाखों मनुष्योंमें से भी दोचार ही ऐसे दिखाई देंगे जो विवाहित हो जाने पर शास्त्रोक्त विधिके अनुसार काम-पुरुषार्थको साधते होंगे। इस कामपुरुषार्थका अर्थ क्या होता है और उसकी साधना कैसे करनी चाहिए ? इस बातका विशेष रूपसे स्पष्टीकरण करनेके पहिले हम एक आवश्यक बातकी ओर पाठकोंका ध्यान खींचना समुचित समझते हैं । वह यह है कि, व्याह किसके साथ करना चाहिए !
शास्त्रकारोंने ब्याहको, गृहस्थ जीवनके मर्यादित बनानेका कारण भी मान रक्खा है । इसी लिए कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचंद्राचार्य अपने योगशास्त्रमें लिखते हैं कि:
"कुल-शीलसमैः सार्द्ध कृतोद्वाहोऽन्यगोत्रः" अर्थात् जिसका कुल और शील समान हो और जो अन्य गोत्रीय हो उनके साथ ब्याह-संबंध-करनेवाला ही धर्मके लायक हो सकता है। ___ यह छोटासा वाक्य बढ़ा गूढ अर्थपूर्ण है। सबसे पहिली बात तो यह है कि, पुरुष और स्त्री दोनों उत्तम कुलके होने चाहिए। अर्थात् उत्तम कुलके पुरुषको उत्तम कुलकी स्त्रीके साथ ही ब्याह करना चाहिए । पुरुष उत्तम कुलका हो और स्त्री अधम कुलकी हो या स्त्री उत्तम कुलकी हो और पुरुष अधम कुलका हो तो उस जोड़ीमें-दम्पतिमें-परस्पर प्रेम नहीं होता है।
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उनमें वारंवार झघड़ा होता है। उनमें कभी एक दूसरेके प्रति सहानुभूति नहीं होती । इसी लिए कहागया है कि, स्त्री पुरुष दोनों समान कुलके होने चाहिए। उसके साथ ही उनके आचरणोंमें भी फरक नहीं होना चाहिए। यदि उनके आचरण भिन्न २ प्रकारके होते हैं, तो उससे भी उन दोनों में प्रेम नहीं होता है । लग्नबंधनमें बँधनानेके बाद भी यदि उनके आपसमें प्रेम नहीं होता है, तो वे धार्मिक या सांसारिक किसी प्रकारका कार्य ठीक तरहसे नहीं कर सकते हैं । परिणाम यह होता है कि, उनका सारा जीवन निःसार हो जाता है। पुरुष यदि अमुक प्रकारके धार्मिक नियम पालता हो और स्त्री नहीं पालती हो; या स्त्री अमुक नियमोंको पालती हो
और पुरुष नहीं पालता हो, तो उसका परिणाम परस्परका वैमनस्य और क्लेश होता है । इस लिए आचरण-भेद भी नहीं होना चाहिए। ____ यहाँ यह कहना भी अयोग्य नहीं होगा कि आजकलकी अनुचित स्वच्छंदताके प्रतापसे कई एक सुधारक कहलानेवाले ऐसे उपदेश और आचरण कर रहे हैं कि, जिनके कारण भारत वर्षसे इस नियमके लोप होनेका डर लगता है। ब्याह क्या चीज है ? और वह किस लिए करना चाहिए ? इसका कुछ भी हेतु न समझकर केवल विषयवासनाओंको तृप्त करनेके लिए कितने ही कुलवान गृहस्थ भी बहुत ही हलके कुलकी और
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हलके आचरणली स्त्रीको इधर उधरसे लाकर अपने घरमें बिठा लेते हैं । इतना ही नहीं वे व्यवहार और शास्त्रमर्यादाको भी तोड़र ऐसी स्त्रीको अपनी अर्धांगिनी बनाते हैं और इसमें अपनी शोभा समझते हैं । आर्यावर्तकी आर्यप्रजाका ऐसा आयत्व ! जिनके हृदयमें लोहमें और शरीरकी एक २ हड्डीमें आर्यत्वका-अध्यात्मका अभिमान बहते रहना चाहिए था; प्रतिकूल इसके वे ही मनुष्य वर्तमानमें चाहे जैसी अधमकुलकी
और खराब आचरवाली स्त्रीके पति बननेमें ही अपना गौरव समझते हैं ! अपनी शोभा समझते हैं ! खेद । अफसोस !! हे आर्यपुत्रो ! हे भारतसंतानो ! तुम्हारे प्राचीन ऋषियों और महार्षियोंके वाक्योंका जरा तो स्मरण करो। तुम्हारे आर्यभिमानी पूर्वपुरुषोंके आचरणोंको थोडाबहुत तो काम, लाओ। बेशक, तुम हलके काम करनेवाली ज्ञातिके मनुष्योंको शिक्षा दो, उनको समझाओ कि, सत्य क्या चीन है ? प्रेम क्या चीज है ! ब्रह्मचर्य क्या चीज है ? और आहारविहारकी शुद्धता कैसी होनी चाहिए ! उनके आचार-विचारोंको सुधारो; और उनको अच्छे अच्छे काम करना सिखलाओ। ऐसा करना तुम्हारा कर्तव्य भी है । परन्तु ऐसा मत समझो कि तुम उनको अपने साथ बिठाकर या अपने साथ भोजन करा कर स्वर्गका सुख दे रहे हो । जो ज्ञातियाँ तुमसे आचारविचारमें मिलती नहीं हैं, जो ज्ञातियाँ तुमसे आहारविहारमें समान नहीं हैं, और जिन ज्ञाति.
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योंकी प्रणालियाँ तुम्हारी और तुम्हारी ज्ञातिकी . णालियों से बिलकुल भिन्न हैं, उन ज्ञातियोंकी कन्याओंको लाकर तुम अपने घरोंमें मत बिठाओ; उनके साथ ब्याह मत करो। ___यदि हम दीर्घदृष्टि से देखेंगे तो ज्ञात होगा कि, जिस देशमें जातिबंधन नहीं है वहाँ भी ऊँच नीचका व्यवहार अवश्य होता है। इतना ही नहीं वहाँ उस व्यवहारके अनुकूल ही कार्य भी होते हैं । यूरोपमें जो लोग राज्यकुटुंबी और 'लॉर्ड' के नामसे पहिचाने जाते हैं, वे मोची या चमारा काम करनेवाले लोगोंके साथ एक ही टेवलपर बैठकर खाना नहीं खाते । जब वे लोग भी इतना विचार करते हैं, तब फिर आर्यावर्तमें उप्तन्न होनेवाली संतति का क्या यह कर्तव्य नची है कि, वह कर्तव्यके हेतु ऊँचनीचका व्यवहार रक्खे । जैनसिद्धांतोमें भी मनुष्योंके जातिसंपन्न कुलसंपन्न, और उससे विपरीत ऐसे दो विभाग बताये गये हैं। मगर इसमे हम कुछ संकुचित हृदयके मनुष्योंकी तरह यह कहना नहीं चाहते हैं कि, तुम शूद्र लोगों को अथवा हलकी ज्ञातिके लोगोको ज्ञान मत दो अथवा धर्म मत सिखाओ । कइयोंने ऐसा कहा है कि,-"जो शुद्र को उपदेश अथवा व्रत देता है, वह असंवृत नामकी नारकीमें जाता है।" यह बात बिलकुल पक्षपातसे भीहुई हैं । शूद्रादिकोंके आत्मा भी तो मूलस्वरूप सच्चिदानन्दमय ही हैं । परन्तु कर्मके कारणसे उनको ऐसी जातिकी प्राप्ति हुई है। ईसलिये उचित व्यवहारसे उनको भी उपदेश देना चाहिए;
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उनको भी यम नियम पालनकर्ता बनाना चाहिए और उनको भी ज्ञानी बनाना चाहिए । जो कृतियोंके कारण हमसे हलके गिने जाते हों उनको सुधारना हमारा मुख्य कर्तव्य होना चाहिए अस्तु । ___अभी हम जो कुछ कहना चाहते हैं, वह यही है कि, नहाँ कुल-आचरण समान हों वहीं ब्याह करना चाहिए । विरुद्ध-आचरण करनेवालोंके साथ लग्न करने से उनके प्रकारके झगड़े ओर केश खडे होनेका भय रहता है। जहाँ झगड़ा है, जहाँ क्लेश है बहाँ प्रेमका अभाव होता है; वहाँ इच्छित-धर्मकार्य नहीं सधते हैं
और वहाँ संसारका सुख भी प्राप्त नहीं होता है । इसके साथ ही लग्न करनेमें गोत्रका भी विचार करना चाहिए अर्थात् शास्त्रकारोंने सगोत्रीय-जिनका एक ही गोत्र हो-के साथ लग्न करना मना किया है। कारण यह है कि, समान गोत्रवाले संबंधी गिने जाते हैं सगे गिने जाते हैं और ऐसे सगोंमें लग्न करना यह व्यवहारसे भी निषिद्ध है । वैद्यकशास्त्रकार भी कहते हैं कि, सगोत्रीय मनुष्योंका रक्त समान होता है । क्योंकि वंशपरंपराका मूल एक ही होता है । इसलिए उन एकरक्तके दम्पतिसे जो संतति उत्पन्न होती है वह अंधी, बहरी, मूक, मूर्ख तथा शरीर और मनकी दुसरी शक्तियोंसे हीन होती है । इसलिए लग्न करनेमें गोत्रका भी खास तरहसे विचार करना चाहिए । यानी सगोत्रियोंको परस्परमें ब्याह नहीं करना चाहिए। इसके सिवा अवस्था-उम्र
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आदिका विचार करना भी जरूरी है । परन्तु इन सब बातोंका यहाँ विवेचन करना अस्थल होगा, इसलिए अब हम फिर अपने विषयपर-कामपुरुषार्थ की साधना किस तरह करना चाहिए ?-आते हैं। ___हम पहिले बता चुके हैं कि, गृहस्थोंको तीन पुरुषार्थ साधन करनेकी आवश्यकता होती है। उनमेंसे तीसरा पुरुषार्थ है काम। गृहस्थोंको यह भली प्रकार जानना चाहिए कि, 'काम' पुरुषार्थकी साधना कैसे करना, परन्तु इसके पहिले कामपुरुषार्थ किसे कहते हैं ? यह समझ लेना अत्यंत आवश्यक है। ___ 'कामका सामान्य लक्षण है:-'आभिमानिकरसानुविद्धा सर्वेन्द्रियप्रीतिः कामः' अर्थात् काल्पनिक रसयुक्त प्रत्येक इन्द्रियमें प्रीति होनेका नाम काम है । यदि शास्त्र - मर्यादाका उलंघन करके अनीतिपूर्वक काम सेवन किया जाय तो वह काम 'काम' नहीं है परन्तु कुकर्म है । जो मनुष्य अपनी स्त्रीके साथ भी मर्यादापूर्वक वैद्यकशास्त्रों और धर्मशास्त्रोंके नियमानुसार संसार-सेवन करता है वही 'काम' पुरुषार्थको साध सकता है। बाकी, जो मर्यादाका भंग करते हैं, वे पशुओंसे भी गये बीते है । क्योंकि कई पशु भी अपनी नियमितताका भंग नहीं करते हैं। यानी जब उन्हें संतति पैदा करनी होती है तभी वे नरमादा मिलते हैं। परन्तु यह दुःखकी बात है कि, मनुष्योंमें सारासार समझनेकी, हित अहित पहचाननेकी शक्ति होते हुए
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भी वे कामान्ध बन, बहुत ज्यादा विषयमें तल्लीन हो जाते हैं । वे न अपने शरीरका ध्यान रखते हैं न लोकनिंदाका डर रखते हैं और न वे अपनी शक्तिके नष्ट होनेका ही विचार करते हैं । समाचारपत्रोंमें प्रायः हम पढ़ते हैं कि, अमुक ब्याह करनेके पश्चात् एक महीनेमें ही मरगया और अमुक पंद्रह दिनमें ही मरगया । इसका कारण क्या ? इसका खास कारण तो यही है, जिसे हम ऊपर बता चुके हैं। यानी वही विषयासक्ति । बहुतसे मनुष्य तो ब्याह करके यही समझते हैं कि, यह लौंडी-दासी केवल विषयसेवनके लिये ही लाई गई है। इसका परिणाम यह होता है कि, थोड़े ही दिनोंमें वे संसारयात्राका अंत कर चल बसते हैं । इसको हम कामपुरुषार्थकी साधना करना नहीं करेंगे । ब्याह करनेके बाद भी ब्रह्मचर्य पालने की आवश्यकता ।
मनुष्योंको यह खूब अच्छी तरहसे याद रखना चाहिए कि, ब्याह करनेके पश्चात् भी उनके सिरपर ब्रह्मचर्य पालनेकी उतनी ही जिम्मेवरी है, जितनी कि, ब्याह करनेके पहिले थी, बल्के हम तो यह कहेंगे कि, पहिलेकी अवस्थासे भी बढ़कर जिम्मेवरी व्याह करनेके पश्चात् होती है।
ब्याह करनेके पहिले वीर्यका संरक्षण करना जैसे ब्रह्मचर्य है, वैसे ही ब्याहके बाद वीर्यका अतियोग या मिथ्यायोग न होनेदेना मी ब्रह्मचर्य ही है। इस ब्रह्मचर्य की रक्षा करनेका कार्य पहिले ब्रह्मर्यकी अपेक्षा कठिन है । विषयवासनाके कारण
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उपस्थित होनेपर भी मनको अधिकारमें रख, विषय वासनासे वंचित रहना यह कठिन काम नहीं है । इसीतरह मनपर अधिकार नहीं रखनेवाले मनुष्य स्त्रीको देखदेख कर पागल हो जाते हैं । परन्तु गृहस्थोंको अपने योग्य ब्रह्मचर्यका पालन अवश्य करना चाहिए । गृहस्थोंके-च्याहे हुओंके ब्रह्मचर्यकी यदि व्याख्या करें तो वह इतनी हो सकती है कि-"संतति उत्पन्न करनेके लिए, अपनी विवाहिता स्त्रीके साथ योग्य समयपर ही संबंध करना । अनियमित और वारंवार नहीं।" यही गृहस्थों का ब्रह्मचर्य है।
इस नियमसे जो मनुष्य उलटा वर्ताव करते हैं, वे ब्रह्मचर्यका भंग करते हैं । कई ऐसा समझते हैं कि, ब्याह करनेके पश्चात वेश्यागमन या परस्त्रीसेवन करना ब्रह्मचर्यका भंग करना है, परन्तु वस्तुतः ऐसा नही है। 'वेश्यागमन ' या ' परस्त्रीसेवन ' यह तो एक प्रकारका दुराचार है; परन्तु ब्रह्मचर्यका भंग तो अपनी स्त्रीके साथ संबंध करनेसे भी होता है। जैसेअनियमित और अयोग्य वर्ताव रखना, वीर्यका हदसे ज्यादा व्यय करना, स्त्रीको इच्छा बिना जबरदस्तीसे विषयसेवन करना, समय कुसमयका विचार न रखना, रजस्वला, सगर्भा और व्याधिग्रस्त स्त्रीके साथ संबंध करना वगैरा, ये सब 'ब्रह्मचर्य का भंग करनेके ही लक्षण हैं । इस ब्रह्मचर्यके भंगको यदि हम 'व्यभिचार ' कहें तो भी कुछ बुरा नहीं होगा। थोड़ेमें कहें
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तो यह है कि, ' ब्रह्मचर्यके ' नियमोंके विरुद्ध वर्ताव करना ही ' ब्रह्मचर्य ' का भंग या ' व्यभिचार ' है। ___गृहस्थोंके लिए खास तरहसे कहा गया है कि-'पुत्रकामः स्वदारेष्वधिकारी' अर्थात्-पुत्रकी इच्छावाला अपनी स्त्रीका अधिकारी है। परन्तु वह भी उम्र लायक होनेके बाद । हमेशाके लिए नहीं । परन्तु जो मनुष्य उन नियमोंका पालन नहीं करते हैं और अनियमित रीतिसे रहते हैं; वे वैसा करनेवाले तिर्यंचोंसे भी हलकी पंक्तिके समझे जाते हैं। तुलसीदासनीने सच कहा है कि,
"कार्तिक मासके कूतरे तजे अन्न और प्यास । __ तुलसी वांकी क्या गति जिनके बारे मास" ॥ १॥ कुत्ते एक मासके विषयसेवनसे हड़काये हो जाते हैं, उनके बाल खिर जाते हैं, उनके शरीरपर घाव पड़ जाते हैं, उनके कानोंमें कीड़े पड़नाते हैं और कई तो मर भी जाते हैं, तब हमेशा विषयमें तल्लीन रहनेवालोंकी क्या गति-स्थिति होनी चाहिए ? पाठक स्वयं इसका विचार कर सकते हैं।
परस्त्रीसेवन और वेश्यागमनसे जो मनुष्य अपने ब्रह्मचर्यका भंग करते हैं, उनकी बात हम छोड़ देंगे । क्योंकि ऐसे काम करनेवाले केवल ब्रह्मचर्यका भंग ही नही बल्के दुराचरणका संवन भी करते हैं । ऐसे दुराचारियों के लिए शास्त्रोंमें बहुत कुछ कहा गया है। ऐसे लोगोंके लिए तो हम यहाँ तक कह सकते हैं कि,
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उनके हृदयमें धर्म ही नहीं है। कइयोंको यह बात सच प्रतीत नहीं होती। इसके लिए हम एक दृष्टांत देंगे । वह यह है-मान लो कि, परस्त्रीसेवन करनेवाले मनुष्यने अमुक स्त्रीको सूचित किया है, कि मैं अमुक समयमें अमुक स्थानपर तुझसे मिलँगा । उस समयमें यदि उस मनुष्यके पूज्य गुरु आ जायँ-या साक्षत् ईश्वर ही आ जायँ तो भी क्या वह मनुष्य गुरुके-ईश्वरके दर्शन करने जायगा ? कभी नहीं । वह तो हजारों काम छोड़कर-पटककर उसकी उस माननीया देवीके दर्शन करने ही जायगा । यह आचरण क्या बताता है ! केवल उसके हृदयमें धर्मकी इच्छाका अभाव । इसलिए ऐसे धर्महीन और दुराचरी मनुष्य तो अपने शरीरका नाश करते ही हैं। परन्तु अपनी स्त्रीके साथ मर्यादा तनकर विषयसेवन करनेवाले मनुष्य भी अपने शरीरको अवश्यमेव नष्ट करते हैं । इसलिए मनुष्यमात्रको शास्त्रमर्यादाका खयाल अवश्य ही रखना चाहिए । विषयसेवनकी मर्यादा क्या है ?
इस मर्यादाको बताते हुए भावप्रकाशमें कहा है कि,-'ऋतौ भार्यामुपेयात्' अर्थात् ऋतुकालमें पुरुषको अपनी स्त्रीके पास जाना चाहिए । रजस्वलास्त्रीके 'ऋतुस्राव ' होता है, उस दिनसे १६ दिनतक 'ऋतुकाल , गिना जाता है । वैद्यकशास्त्रके नियमानुसार स्त्रीके गर्भ रहनेका यही समय है । इन दिनोमेंसे स्त्री पुरुषको एक दिन
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मुकर्रर कर लेना चाहिए । कहते हैं कि, ऋतुकाल व्यतीत हो जानेके पश्चात्-१६ रात्रिके बाद स्त्रीका गर्भाशय बंद हो जाता है। उसके बाद गर्भाधानके हेतुसे संयोग करना निरर्थक है । ध्यानमें रखना चाहिए कि, उपर्युक्त १६ रात्रिमें भी स्त्रीको जितने दिन तक रक्तस्राव जारी रहे उतने दिन भूल कर भी संयोग नहीं करना चाहिए । उपर्युक्त १६ रात्रियोंमें भी अमुकअमुक रात्रियाँ खास तरहसे वर्च्य हैं । इन सब बातोंका मनुष्यको खयाल रखना चाहिए। ___वस्तुस्थिति देखनेसे मालूम होता है कि, प्रत्येक विवाहित मनुष्यको कमसे कम एक साथ १८ महीनेतक ब्रह्मचर्य पालनेका प्रसंग तो अवश्यमेव मिलता है। अतः इतने समय तक उसे जरूर ब्रह्मचर्य पालना चाहिए।
शास्त्रकारोंका यह कथन है, और वह शरीरशास्त्रके निय. मानुसार सर्वथा सत्य है कि, स्त्रीको जिस दिनसे गर्भ रहे उसी दिनसे पुरुषको स्त्रीके पास नहीं जाना चाहिए । यह नियम उस समय तक पालना चाहिए जब तक कि, बालक जन्मकर दूध पीना छोड़कर खुराक खाने लगजाता है । ऐसा होनेमें लगभग १८ महीने या उससे भी ज्यादा समय हो जाता है। इतने काल तक पुरुषको भूलकर भी स्त्रीके पास नहीं जाना चाहिए । बस इसका नाम ही-'ब्रह्मचर्य' है । स्त्री होते हुए भी पुत्रोत्पत्ति करते हुए भी-इस नियमको पालनेवाला गृहस्थ ब्रह्मचारी कहलाता है।
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इस तरह अठारह मास तक विवाहित गृहस्थको ब्रह्मचर्य पालना ही चाहिए । एक अंग्रेज विद्वान् भी यही बात जोर देकर कहता है। इतना ही नहीं, परन्तु वह तो आगे बढ़कर यहाँ तक कहता है कि,-"अठारह महीनेकी मुद्दत तक वह स्त्री बहुत अशक्त हो जाती है। इस लिए वह स्त्री जब तक संपूर्णतया सशक्त और तंदुरुस्त न हों जाय, तब तक पुरुषको उसके पास न जाना चाहिए।" ऐसी संपूर्ण शक्ति आनेके लिए वह विद्वान् अठारह महीनेके उपरांत भी बारह या पंद्रह महीने तक स्त्रीके पास नहीं जाना बताता है । उसका मत है कि, ढाई या पौने तीन सालतक पुरुषोंको अवश्यमेव ब्रह्मचर्य पालना चाहिए । इस तरह ब्रह्मचर्य पालनपूर्वक वीर्यकी रक्षापूर्वक संसार-सेवन करनेवाला पुरुष यदि महान् तेनस्वी विशाल छातीवाला और प्रतापी पुत्र उत्पन्न करे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? और वह पुत्र यदि भविष्यमें अपने ही समान संतति उत्पन्न करे और इसके परिणाममें सारा आर्य संसार सुधर जाय तो इसमें न बनने योग्य बात कौनसी है ? क्या ज्यादा विषयसेवनसे कामकी तृप्ति होती है ?
इस समय हमें इसका उत्तर दे देना भी जरूरी है । वह यह है-कई लोग ऐसा समझकर विषयसेवन करते हैं कि, यदि अमुक समय तक हम विषय-सेवन करते रहेंगे तो तबीअत भर जायगी और फिर विषय-सेवन करनेकी इच्छा नहीं रहेगी। परन्तु
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हम तो इस मन्तव्यको उसी समय सच्चा मानेंगे जिस समय कि, अग्निमें घी डालनेस अग्नि शांत हो जायगी। मनुष्य जितना ज्यादा विषयसेवन करता है उतनी ही ज्यादा उसकी लालसा बढ़ती जाती है । लालसा कभी तृप्त नहीं होती। मनुजी मनुस्मृतिके दूसरे अध्यायमें कहते हैं किः
"न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते" ॥ ९४ ॥
अर्थात्-विषयसेवनसे कभी कामवासनाकी तृप्ति नहीं होती । बल्के उसकी तो, अग्निमें घृत डालनेसे जिसतरह अग्नि ज्यादा प्रज्वलित होती है उसीतरह, वृद्धि होती है।
कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचंद्राचार्य भी योगशास्त्र के दूसरे प्रकाशमें उपर्युक्त बातको निम्नलिखित शब्दोंमें कहते हैं।
"स्त्रीसंभागेन यः कामज्वरं प्रतिचिकीर्षति । स हुताशं घताहुत्या विध्यापयितुमिच्छति" ।। ८१ ।।
अर्थात्-जो मनुष्य स्त्रीसंभोगसे कामज्वरको शान्त करना चाहता है, मानो वह घृताहुतिसे अग्निको शांत करनेका प्रयत्न करता है । अर्थात्-घृतकी आहुती जैसे अग्नि शांत न होकर ज्यादा प्रदीप्त होती है, उसीतरह विषय-सेवनसे कामज्वर शांत न होकर उल्टा ज्यादा प्रज्वलित होता है । इस लिए यह प्रयत्न तो और भी ज्यादा हानिकर्ता है।
निनको विषयसेवनकी चाट लग जाती है, उनकी चाटका
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अन्त उनके बाद ही होता है। वे रोगी बनते हैं, शोकी-चिन्ताप्रस्त-बनते हैं और सर्वथा नष्ट भी हो जाते हैं; किन्तु वे परवाह नहीं करते। वे तो आयुष्यके अन्ततक उसीमें आसक्त रहते हैं। योड़े वीर्यकी क्षति भी बहुत ज्यादा नुकसान करती है।
आजकलके मनुष्योंको देखो। वे प्रायः शारीरिक बलके साथ ही मानसिक बलमें भी बहुत कमजोर होते हैं। इतने कमजोर होते हैं कि, छोटेसे छोटा काम करनेकी भी उनकी हिम्मत नहीं पड़ती। इसका कारण अधिक विषयसेवन करना है। जिसका थोडासा वीर्य नष्ट हो जाता है-थोड़ासा भी ब्रह्मचर्य भंग हो जाता है, वह अपने कार्यमें प्रायः विजय नहीं पाता है । जब ऐसे कई दृष्टांत हमारे सामने मौजूद हैं, तब जिन्होंने अपने ब्रह्मचर्यका भंग करनेमें कुछ विचार नहीं किया, जिन्होंने विषयसेवनकी कुछ मर्यादा नहीं रक्खी, अथवा नहीं रखते हैं, वे किसी कार्यमें सफलता कैसे पा सकते है ? वे यदि प्रत्येक कार्यमें पिछड़े रहते हैं तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? कौन नहीं जानता कि, नेपोलियन बोनापार्ट सारे यूरोपको धुनानेवाला व्यक्ति था; तो भी वह अपने स्थानसे नीचे गिर गया; बल होने पर भी वह हार गया । उसका क्या कारण है ? इसका स्पष्ट कारण इतिहास बताता है कि, संग्राममें जानेके पहिले रात्रिमें उसने स्त्रीसेवन किया था। अभिमन्यु जैसा महा बलशाली योद्धा कुरुक्षेत्रकी रणभूमिमें नष्ट
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हो गया। इसका कारण क्या था ? कारण यही कि, वह रणभूमिमें जानेके पूर्व अपना ब्रह्मचर्य खंडन कर चुकाया । लंकाके युद्ध में जब यह प्रश्न उपस्थित हुआ था कि,-" मेघनाद को मारनेमें कौन समर्थ होगा ? " तब रामचंद्रनीने कहा था कि, 'जिसने १२ वर्ष तक बराबर ब्रह्मचर्य पाला होगा, जिसने अपवित्र विचार भी नहीं किया होगा, वही मेघनादको मारनेमें समर्थ होगा। इसका सुयश लक्ष्मणजीको मिला था। उन्होंने १२ वर्ष तक अखंड ब्रह्मचर्यका पालन किया था। उन्होंने कभी अपवित्र विचार भी नहीं किया था । लक्ष्मणनीकी पवित्रताके लिए ज्यादा क्या कहें ? जिस समय रामचंद्रनी सीताकी खोजमें व्याकुल होकर जंगलोंमें फिरते थे, उस समय सुग्रीवद्वारा मिले हुए आभूषणोंको दिखाकर श्रीरामचंद्रनीने लक्ष्मणसे पूछाः"भाई लक्ष्मण ! देखो तो सही, ये आभूषण सीताके ही हैं न?"
तब लक्ष्मणजीने कहा था कि:"भूषणं नैव जानामि नैव जानामि कुंडले ।
नूपुराण्येव जानामि नित्यं पादाभिवंदनात्" ॥ १ ॥ _' हे नाथ ! मैं इन कुंडलादिक भूषणोंको नहीं पहिचानता, मैं हमेशा उनके चरण कमलोंमें अभिवंदन-नमस्कार करता था इस लिए केवल इन नूपुरोंको ही पहिचानता हूँ। ये सीताजीके
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आहा ! कैसा सुंदर भाव ! कैसी सुंदर मर्यादा ! कैसा सुंदर ब्रह्मचर्य ! ऊपरके दृष्टांतोंसे हम यह जान सकते हैं; देख सकते हैं कि, वीर्यकी-ब्रह्मचर्यकी स्खलना करनेवाला मनुष्य अपने कार्यमें सफल नहीं होता । ब्रह्मचर्यका थोडासा खंडन भी समय आनेपर सफलतामें वाधा डालता है । ये तो बहुत दूरके उदाहरण हुए । अब हम यहाँ एक अनुभूत दृांत देंगे ।
थोड़े सालके पहिले महेसाणेमें दो जबरदस्त मल्लोंकी कुश्ती हुई । उनमेंसे एक लारी-खींचनेवाला था और दूसरा मंदिरका नौकर था । लारी खींचनेवाले मल्लसे मंदिरका नौकर मल्ल बहुत मजबूत था । उसने कई मल्लोंको जीता था। इस कुश्तीमें मंदिरके नौकर मल्लने बहुत दाव पेंच किये, परन्तु आखिर उसे उस लारी खींचनेवाले मल्लने चित्त डाल कर हरा दिया । इत मल्लसे जब एकान्तमें पूछा गया कि, कई अच्छे अच्छे मल्लोंको तुमने हराया है और इस समय इससे तुम कैसे हार गये ! तब उसने खिन्न होकर यही कहा कि, मैंने एकसमय अपना वीर्य कुमार्गमें नष्ट कर दिया। इसीका यह परिणाम है। ब्रह्मचर्य से लाभ ।
उक्त बातोंसे पाठक यह समझ सकते हैं कि, वीर्यकी हानि, मनुष्यको सब कामोंमें हानि पहुँचाती है । इसलिए हम एक विद्वानके शब्दोंमें कहेंगे कि, मनुष्यको वीर्यकी उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि, दीपकको तैलकी आवश्यकता है । जैसे
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बत्तीके ऊपर तैल चढ़नेसे प्रकाश बढ़ता है, उसी तरह जिस मनुष्यकी शक्तिका व्यय नीचेके भागमें नहीं होता है; जिसकी शक्ति ऊपरके भागमें चढ़ती है, उसकी आकर्षण शक्तिकी और मानसिक तेजकी वृद्धि होती है। उसको परमानंद प्राप्त होता है। इतना ही नहीं उसकी संतति भी महान तेजस्वी और मजबूत होती है । कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य योगशास्त्रके दूसरे प्रकाशमें कहते हैं कि:"चिरायुषः सुसंस्थाना दृढसंहनना नराः। तेजस्विनो महावीर्या भवेयुब्रह्मचर्यतः" ॥ १०५ ॥
अर्थात्-ब्रह्मचर्य पालनेसे मनुष्य लंबी आयुष्यवाले, अच्छे संस्थानवाले, मजबूत शरीरवाले, तेजस्वी और अत्यंत बलवान् होते हैं।
इसलिए शरीरकी रक्षा और अच्छी संतति उत्पन्न करनेकी इच्छा रखनेवाले गृहस्थको अवश्य 'ब्रह्मचर्य ' का पालन करना चाहिए। कई दफा ऐसा देखा जाताहै कि, वृद्धावस्थामें कई मनुष्योंकी बुद्धि मंद पड़जाती है । क्या ऐसा होना चाहिए ? वृद्धावस्था तो बुद्धिका खजाना होनी चाहिए; वृद्धावस्थामें तो मनुष्यको पूर्ण अनुभवी और ज्ञानकी मूर्ति बनना चाहिए; उसके बदले वह बनता है क्या ? प्रायः कइयोंमें तो कौड़ीभर भी अक्ल नहीं रहती; बोलनेका भी होश नहीं रहता । उनके हृदयोंमें भनेक प्रकारकी लालसाएँ बढ़नाती हैं । उनके शरीरका प्रत्येक
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अंग ऐसा ढीला और कमजोर पड़जाता है कि, उन्हें रगड़ रगड़े कर दिन पूरे करने पड़ते हैं । इसका कारण क्या है ? इसका कारण यही है कि, उन्होंने ब्रह्मचर्य उतने प्रमाणमें नहीं पाला। विपरीत इसके कई साठ साठ सत्तर सत्तर वर्षके वृद्ध ऐसे देखने में आते हैं कि, जो २५-३० वर्षके जवानोंसे भी दुगना काम करते हैं। वे-१०-५ कोस चल ही नहीं सकते हैं बल्के २०-२५ सेर बोझा उठाकर ले जाना हो, तो उसे भी वे बड़े मजेसे उठाकर लेजा सकते हैं। उनकी आँखोंका तेज भी बहुत अच्छा होता है । इसका कारण ? इसका कारण यही है कि, उन्होंने अपने जीवन में वीर्यका दुरुपयोग नहीं किया है। उन्होंने संसारसेवन उचित रीतिसे किया है। इसीलिये वे वृद्धावस्थामें भी मजबूत शरीरवाले और शक्तिवान हैं । एकपत्नीव्रतकी आवश्यकता।
गृहस्थोंको मुख्यतया, अपने ब्रह्मचर्यकी अंगभूत एक दूसरी बात और ध्यानमें रखनी चाहिए । वह यह है कि, एक स्त्री होने पर दूसरी स्त्री कदापि नहीं करनी चाहिये । एकसे ज्यादा स्त्री करने वाला भी ब्रह्मचर्य भंग करनेवाला कहा जाता है । एक हिन्दी कविने कहा है कि-'जाके एक नारी वही ब्रह्मचारी है। बात बिल्कुल सत्य है । एक पत्नीव्रतवाला गृहस्थ सचमुच ही ब्रह्मचारी गिना जाने योग्य है । यदि दीर्घदृष्टिसे देखेंगे तो ज्ञात होगा कि, दो स्त्रियोंके पतिको सांसारिक सुख भी कुछ नहीं मिलते
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हैं । उस बिचारेका सारा जीवन जल जल कर व्यतीत होता है। शास्त्रकार कहते हैं
"वरं कारागृहे तितो वरं देशान्तरभ्रमी । वरं नरकसंचारी न द्विभार्यः पुनः पुमान् ॥ १॥ अभोजनो गृहाद् याति नानोत्यम्बुच्छटामपि। अक्षालितपदः शेते भार्याद्वययुतो नरः" ॥२॥ अर्थात कैदखानेमें रहनेवाला श्रेष्ठ है, देशान्तरमें भ्रमण करनेवाला अच्छा है, नरकमें विचरनेवाला अच्छा है, परन्तु दो स्त्रियोंका पति श्रेष्ठ नहीं है। दो स्त्रियोंके पतिको घरसे भोजन किये विना जाना पड़ता है, पानीकी वद. तक नहीं मिलती और विना पैर धोये ही उसे सो जाना पड़ता है।
यह बात झूठ नहीं है । दोनोंका प्रेम संपादन करने के लिए अथवा दोनों स्त्रियोंको रानी रखनेकेलिए उसे जो मुसीबतें उठानी पड़ती हैं, उनको उसका अंतरात्मा ही जानता है। बड़ा भारी शूरवीर, होशियार और विचक्षण पुरुष भी यदि दो स्त्रियोंका पति बन जाता है, तो उसकी सारी शूरवीरता, उसकी सारी होशियारी और उसकी सारी विचक्षणता उन स्त्रियोंके आगे हवा हो जाती है । अमुकको कैसे समझाना और अमुकको कैसे राजी करना, यही फिक्र बिचारेको रात दिन सुखाया करती है। इसके अलावा उन दोनों स्त्रियोंके पारस्परिक लड़ाई झगड़ोंसे
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दुनियामें-जो फनीहती होती है, वह तो अलग ही है। ऐसे दो स्त्रियोंके पतिपर दया लाकर एक कविने कहा है किः
"बहुत वणिज बहु बेटियाँ दो नारी भरतार ।
उसको क्या है मारना ? मार रहा किरतार" || बिल्कुल सच है । दो स्त्रियोंका भर्तार स्वयं मरा हुआ है। खानेमें पीनेमें या और किसी कार्यमें उसको आनंद नहीं मिलता। एक दृष्टांत है कि:
" एक समय एक चोर, एक ऐसे गृहस्थके घरमें चोरी करने घुसा जिसके दो स्त्रियाँ थीं। एक स्त्री नीचेके कमरेमें सोती थी और दूसरी ऊपरके कमरेमें । सेठ उसी रात्रिको-जिस रात्रिमें चोर चोरी करने घुसाथां-नीचेके कमरेसे ऊपर सोई हुई स्त्रीके पास जाने लगा । यह बात नीचे के कमरेमें सोई हुई को अच्छी नं लगी । सेठ जब नालमें चढ़कर जाने लगा तब नीचेके कमरेवाली स्त्रीने उसके पैर पकड़ लिए, यह बात ऊपरके कमरेवालीको मालूम हुई । उसने झट चढ़ावके मुँह पर आकर सेठके सिरकी चोटी पकड़ ली । ऊपरवाली सेठको ऊपर और नीचेवाली सेठको नीचे खींचने लगी । सेठ यदि चाहता तो दीनोंमेंसे एककोजिसको चाहता उसे-झटककर हटा सकता था। मगर उसने इस डरसे ऐसा नहीं किया कि, कोई रिसा न जाय, इसलिए वह सारी रात त्रिशंकुकी तरह नालके चढ़ावके बीचमें ही खड़ा रहा और वे दोनों स्त्रियाँ उसको अपनी अपनी तरफ खींचती रही।
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इस तमाशेको देखने में चोरको इतना मना आनंद आया कि, वह चोरी करना भूलकर एक कोनेमें खड़ाहुआ यह तमाशा देखता रहा । सवेरा होते ही चोर पकड़ा गया। चोर जब कोर्टमें पेश किया गया तब उसने कहा:-" यह अपराध स्वीकार करता हूँ कि, मैं चोरी करने गया था, आप मुझे इस अपराधके बदलेमें कैद कीजिए, देशनिकाला दीजिए या फाँसीका हुक्म दीजिए । मैं दंड भोगनेको तैयार हैं। परन्तु मैं प्रार्थना करता हूँ कि, आप मुझे दो स्त्रियोंका पति बननेकी आज्ञा न दीजिए।" चोरकी यह बात सुनकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। जब उसे कारण पूछा गया तब उसने कहा कि,-" ये सेठ दो स्त्रियाँ करके जो दुःख उठाते हैं, उस दु खके सामने फाँसीकी लकड़ी पर चढ़कर मरनेका दुःख किसी हिसाबमें गिनतीमें नहीं है।" इससे समझमें आता है कि, दो स्त्रियोंका पति सचमुच बहुत ही दुखी होता है और वह बहुत दुःख झेल झेल कर मरता है । ऐसा जानने पर भी जो मनुष्य एकसे ज्यादा स्त्रियाँ व्याह लेता है, इसका कारण उसकी विषयलालसा ही है। इस विषयकी लालसाके सिवाय इसमें और भी कारण है। वह है-एकसे ज्यादा पुत्र प्राप्तिकी इच्छा । यदि एक स्त्रीसे पुत्र उत्पन्न नहीं होता है, तो वह दूसरी करता है और यदि दूसरीसे भी पुत्र नहीं होता है, तो तीसरी करता है । कई तो ज्यादा स्त्रियाँ करना धनाढ्यताका भूषण समझते हैं, परन्तु भीतर ही भीतर इस धनाढ्यताके भूषणका
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कैसा फल मिलता है, सो उनका आत्मा ही जानता है। कई वार उनको अंदर ही अंदर जूतियाँ भी खाना पड़ती हैं। अच्छे अच्छे बुद्धिमान और दूसरे मनुष्योंको अपनी बुद्धिमत्ताकी बातें सुनानेवाले भी कईवार स्त्रियोंके आगे बकरी जैसे हो जाते हैं। कइयोंको तो स्त्रियोंकी गालियाँतक खानी पड़ती हैं। वे उन गालियोंको घीकी नाले समझकर गटागट पी जाते हैं, यह आत संसारके अनुभवियों से छुपी हुई नहीं है। यह सब कुछ उन्हें क्यों सहना पडता है, ! केवल विषयभोगके आधीन हो जानेसे । वास्तविक बात तो यह है कि, पुरुषका प्रभाव स्त्री पर पड़ना चाहिए; परन्तु आज कल बहुधा देखा जाता है कि, इससे उल्टा होता है। यानी स्त्रीका प्रभाव पुरुषपर पड़ता है। इसका कारण सिवाय पुरुषोंकी निर्बरताके और कुछ नहीं है। अस्तु । ज्यादा पुत्रोंकी उत्पत्तिसे आर्थिक हानि । ___ हम यहाँ पर जो कुछ कहना चाहते हैं, वह ज्यादा पुत्रोस्पत्तिके बारेमें हैं । कई मनुष्य ऐसे भी हैं, जिनके सवा डमन छोकरे छोकरियाँ खेलते रहते हैं; सत्तर वर्षकी उम्र हो जाती है, तो भी वे विषयसे निवृत्त नहीं होते हैं और न संतोष ही रखते हैं । उनकी इच्छा होती है कि, यदि हम दस पाँच वर्ष और ज्यादा जिन्दा रहते तो हमारे दो चार बच्चे और भी उत्पन्न हो जाते; परन्तु ऐसे मनुष्य आर्थिक दृष्टीसे भारतवर्षकी कितनी
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भारी हानि करते हैं; इसका भी कोई विचार करता है ! कीहियोंकी तरह उभराती हई-बढती हई-मनुष्यवृद्धि क्या कभी कायम रह सकती है ! प्राचीन इतिहासोंको देखो । उनसे मालुम होगा कि, मनुष्यवृद्धि जब जब ज्यादा हुई तभी तब कुदरतके जंगली कानूनने अपना स्वछंद अधिकार चलाया है। हैना, दुष्काल, धरतीकंप और लड़ाई-ये चार कुदरतके जंगली हथियार हैं । जबजब सृष्टिकमकी मर्यादाका उल्लंघन होता है; कचरा कूढ़ा बढ़ा जाता है तभी उसको सफा करनेके लिए कुदरत अपने इन जंगली हथियारोंका उपयोग किया करती है। और भी एक बात विचारने लायक है । भारतवर्षमेंसे वैरभाव और स्वार्थपरताका अभाव नहीं होता, इसका सबब क्या है ? इसका कारण भी बस्तीके प्रमाणका बहुल्य ही है । यह बात संकुचित दृष्टिवाले मनुष्य नहीं समझ सकते । इसके लिए अंदर उतरनेकी जरूरत है। जिस देशकी मनुष्योत्पत्ति जमीनकी पैदाइशके प्रमाणमें होती है, उस देशके मनुष्य वैरभावरहित जीवन बिताते हैं । भारतवर्षकी वर्तमान स्थिति इससे उल्टी है। हिदुस्थान देश मुर्गों और कुत्तोंकी तरह संतति उप्तन्न करनेमें अन्यान्य देशोंसे बहुत आगे बढ़ गया है और द्रव्योत्पत्तिमें दूसरोंसे बहुत पीछे पड़ गया है । एक मनुष्यने हिसाब लगाया है कि, भारतवर्षके एक मनुष्यको १५ मनुष्योंकी खुराक पैदा करनी पड़ती हैं और प्रति मनुष्यकी मासिक आयका हिसाब ढाई रू. है।
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अर्थात् २॥) रू. में एक मनुष्यको अपना निर्वाह करना पड़ता है। ऐसी हालतमें यह कैसे हो सकता है कि, भरतखंडके लोग नीतिसे चलें, वैरभावका त्याग करें, और प्रत्येक मनुष्य मिलजुलकर रहें । पंद्रह गायोंके वाड़ेमें यदि एक ही गायके लिए घास डाला जाय तो वे भिचारी गरीब गायें भी पेट भरनेकेलिए लड़े विना कैसे रह सकती हैं ? यदि २५ कुत्ते ईकट्टे किये जायें
और उन्हें एक दो रोटी के टुकड़े ही डाले जायँ तो वे कुत्ते क्या एक दूसरेसे लड़े विना रहेंगे ? कभी नहीं । कुदरतको यह बात पसंद नहीं है कि, दुनियामें मर्यादाका भंग हो।
क्या यह आश्चर्य और खेदकी बात नहीं है कि, एक मनुष्य, जिसके घर कुटुंबके पोषण योग्य आय नहीं है और जो रात दिन अकथनीय चिंताएँ और कष्ट उठाते रहता है-एकके पीछे एक बच्चा पैदा किये जाता है । इसका परिणाम क्या हो रहा है ! सबका आधे पेट रहना । पाँच या सात रुपये पैदा करनेवाला एक आदमी अपना, अपनी स्त्रीका और यदि हो तो, एकदो बच्चोंका भी पूरी तरहसे पेट नहीं भर सकता है, वही यदि वर्ष या दो वर्षमें एक एक संतान उप्तन्न करता जाय, तो भविष्यमें उसका परिणाम क्या होगा ? इसका विचार पाठक स्वयं कर सकते है । इसलिए देशको यदि दरिद्रतासे बचाकर रखना हो और हैंना, दुष्काल, धरतीकंप और लड़ाई-इन चार प्रकृतिके कोपोंका भोग न बनाना हो, और भारतवर्षमें एकताका
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साम्राज्य स्थापन करना हो तो, इस आर्थिक दृष्टिसे भी चाहिए कि, वे विषयवासनाओंको कमकरके पुत्रोत्पत्तिके प्रवाहको रोकें।
वास्तविक दृष्टि से यदि मनुष्य विचार करेंगे, तो उन्हें मालुम हो जायगा कि, चुहियाकी तरह अनेक संताने उत्पन्न करनेसे कुछ लाभ नहीं है । पक्के वीर्यसे तेजस्वी, दीर्घायु मजबूत संघठनका एक ही बच्चा हो तो वह गृहस्थोंके लिए पर्याप्त हो जाता है । नीतिकारका यह कथन सर्वथा सत्य है कि:---
"एकेनाऽपि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम् । सहैव दशभिः पुत्रैर्भारं वहित गर्दभी " ॥ १ ॥
अर्थात् - एक सुपुत्रकी प्राप्तिसे सिंहनी निर्भय होकर सोती है और दश पुत्र होने पर भी बिचारी गधीको जन्मभर भार ही वहन करना पड़ता है ! इसलिए दश निर्बल पुत्रोंकी अपेक्षा एक सशक्त पुत्र ही अच्छा है। ___संसारमें मनुष्योंके पुत्रप्राप्तिकी इच्छा कितनी प्रबल होती है। इस बातसे कोई भी अजान नहीं है । साठ २ सत्तर २ वर्षके बूढे दश दश या पंद्रह २ वर्षकी बालिकाओंके साथ लग्न करके उनके सारे जीवनपर पानी फेर देते हैं, इसका क्या कारण है ? केवल पुत्रप्राप्तिकी इच्छा । कमर टूट नाने पर भी न्याह करनेकी इच्छा करना-व्याह करना बहुत ही धिक्कारने योग्य है । तो भी लोग. इससे मुँह नहीं मोड़ते हैं । इसी प्रकार
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वेश्यागमन परस्त्रीगमन वगैरह निंद्य कार्य करते हैं । इसका कारण भी उनकी विषयांधता ही है । ऐसी विषयांधताके कारण उनकी पड़ी हुई कुटेवोंसे जो खराबियाँ होती हैं वे किसीसे छिपी हुई नही हैं । इसलिए उसके बारमें विशेष कुछ न कहकर हम एक खास बातकी तरफ पाठकोंका ध्यान खींचना आवश्यक समझते हैं। वह यह है कि, इस विषयांधता और पुत्रप्राप्तिकी इच्छाके कारण ही कई लोग विधवाविवाहका प्रचार करने के लिए तैयार हुए हैं । परन्तु वस्तुतः विधवाविवाहसे कितनी खराबियाँ होती हैं, इस बातको वे समझ ही नहीं सके हैं । विधवाविवाहसे खराबी। ___सबसे पहिले तो विधवाविवाहके प्रचारसे संसारमें व्यभिचार-व्यभिचार ही नहीं, दुराचार भी-बढ़ता है । स्त्री पति मरजानेके बाद अपने छोटे छोटे बच्चोंको छोड़कर चली जाती है पति मरा न हो और जीता हो, मगर उसमें किसी प्रकारका दोष होतो वह उसे किसी न किसी प्रकार मार डालनेमें या उसे छोड़ दूसरेको कर लेने में आगा पीछा नहीं करती है। फिर दुसरेके साथ नहीं बनता है, तो उसे भी मारकर तीसरा करलेती है । कारण,-जिस पतिप्रेम-पतिमक्तिका उसके हृदयमें रहना
आवश्यक है, वह उसमें नहीं रहता है । उसका परिणाम यह होता है कि, वह स्वच्छंद वर्ताव करने लगती है। ऐसे अनर्थ क्यों होते हैं ? विधवाविवाहकी छूट मिलनेसे और विषयलोलुपता
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बढ़नेस । यद्यपि यह बात सच्ची है कि, कई एक निर्लज और हीन कुलकी विधवाएँ अपनी मर्यादा सँमाल कर नहीं रहती, इसलिए वे बालहत्या जैसा नीचसे नीच काम कर डालती हैं; परन्तु उसका विधवा-विवाहके प्रचारसे रुकनाना असंभव है। विधवा-विवाहसे तो और भी ज्यादा अनर्थ खड़े होंगे । इसलिए ऐसी हत्याओंका मूल क्या हे ? ढूँढ कर उसको नष्ट करना चाहिए । अगर हम विचार करेंगे तो मालुम होगा कि, वास्तवमें विधवाओंकी वृद्धिका मूल कारण बालविवाह और वृद्धविवाह है। इसलिए विधवाविवाहका प्रचार न कर इन दोनों बातोंको सख्तीके साथ रोकना चाहिए । यदि इन दोनों बातोंका नाश हो जाय, तो विधवाओंकी वृद्धि आप ही कम हो जाय । इससे यह नहीं मान लेना चाहिए कि, सर्वथा विधवाएँ होंगी ही नहीं । कर्मके कारण कुछ विधवाएँ हो भी जायँ तो उनके लिए अच्छे अच्छे विधवाश्रम खोलकर उसमें विधवाओंको उत्तम शिक्षा दी जाय, जिससे थोड़े अंशोंमें जिस अनर्थके होनेकी संभावना रहती है वह भी मिट जाय । इसलिए जो मनुष्य बाल-हत्याका कारण आगे कर विधवाविवाहका प्रचार करना चाहते हैं, उनको दीर्घदृष्टि से विचार करना चाहिए । विचारोंके अभावसे और दुराग्रहके परिणामसे विद्वान् भी उल्टे मार्गपर खिंचे चले जाते हैं। यह बात कभी नहीं भूलना चाहिए कि, भारतमें सत्य, प्रेम और ब्रह्मचर्य इन तीन वस्तुओंकी
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बहुत आवश्यकता है । इनमें भी सत्य और प्रेमकी वृद्धि तथा शुद्धि करनेवाले ब्रह्मचर्यकी आवश्यकता तो सबसे पहिले है। परन्तु यदि विधवा-विवाहका प्रचार हो गया तो ब्रह्मचर्यकी मर्यादा नहीं रहेगी । और विधवा-विवाह शुरू हो जायगा तो कोई साध्वी भी नहीं होगी। ओह ! साध्वी होना तो दूर रहा, गृहवस्थावस्थामें रहकर भी स्त्रियाँ निर्मल जीवन व्यतीत नहीं कर सकेंगी। निदान उनकी धार्मिकलागणी-धार्मिकवृत्ति तो कभी भी नहीं सुधरेगी। और परिणाम यह होगा कि, हलके लोगोंकी तरह चालीस चालीस या पचास पचास वर्षका पुत्र होने पर भी-और उनके पुत्रोंके ऊँची स्थितिमें पहुँच जाने पर भी विधवाएँ पति करके रहने लगेंगी । युरोपमें भी राज्य-कुटुंबी लोगोंमें विधवा-विवाहका प्रचार नहीं है । इससे भी हम सिद्ध करसकते हैं कि, यह रीति प्रशंसनीय नहीं है; बल्के निंदनीय है। इसलिए विधवा-विवाहके पक्षपातियोंको इस बातपर अवश्य ध्यान देना चाहिए । और जो मनुष्य केवल व्यभिचार-दुराचारका प्रचार करने के लिए ही विधवा-विवाहका प्रचार करनेमें बुद्धिमत्ता समझता हो, उसके लिए तो कुछ कहना ही व्यर्थ है । स्त्री सदाचारिणी कैसे रह सकती है ?
यह बात तो सब समझ सकते हैं कि, स्त्रीजातिकी, ब्रह्मचर्य पलवानेकेलिए, पुरुषोंसे भी ज्यादा खबर रखनेकी जरूरत है।
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कारण कि, पुरुषोंसे स्त्रियोंमें कामवासना आठ गुनी अधिक बताई गई है। इसलिए विवाहित पुरुषोंको अपनी स्त्रीको मर्यादामें रखनेके लिए मुख्यतया कुछ नियम पालनेकी जरूरत है। यद्यपि यह बात सच है कि, स्त्रियाँ पुरुषोंकी तरह एकदम निर्लज नहीं हो जाती हैं; तथापि जब वे निज हो जाती हैं, तब ऐसी होजाती हैं कि, क्रूरसे क्रूर काम करनेमें भी वे आगा पीछा नहीं करती हैं । अतएव पुरुषोंको स्त्रीकी रक्षाकरनेकेलिए खूब ध्यान रखनेकी जरूरत है। कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचंद्राचार्य योगशास्त्रकी टीकामें स्त्रीकी रक्षाके चार उपाय बताते हैं । वे ये हैं, १-अपने गृहकार्यका समस्त बोझ स्त्रीके ऊपर डालना, २-उसके पास परिमित द्रव्य रखना, ज्यादा नहीं, ३-उसको स्वतंत्रता नहीं देना अर्थात् कुसमय फिरने जानेकी, खराब आचरणवाली स्त्रियोंका संग करनेकी, मेले खेल तमाशे वगैरा देखने जानेकी,
और निष्कारण घरसे इधर उधर भटकने इत्यादिकी स्वतंत्रता नहीं देना और ४-पुरुषको अपनी स्त्रीके सिवा अन्य स्त्रीयोंको माता बहिन और पुत्रीके समान समझना । अर्थात् पुरुषको परस्त्री
और वेश्याका त्यागी रहना । इन चार बातोंका खयाल रखनेवाले पुरुषकी स्त्री ही सदाचारिणी रहती है। जो इसके विपरीत चलता है, उसकी स्त्री अपनी कुल मर्यादा तजकर कुलको कलंकित करती है । यहाँ तक कि, अधमसे अधम कार्य करनेसे भी वह नहीं डरती है।
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दुराचारिणी स्त्रीको निर्दयता। ____ यहाँ पर ऐसी ही एक निर्दय-निष्ठुर स्त्रीकी कृति याद आती है
"एक स्त्री पर-पुरुषमें आसक्त हो गई थी। वह हमेशा अपने जार पुरुषको अपने घर बुलाया करती थी। एक वार वह जार पुरुष जब स्त्रीके घरमेंसे निकला उसी समय उस स्त्रीका सात वर्षकी उम्रका लड़का स्कूलसे घर आया। लड़केने अपनी माँसे पूछा- " माँ ? यह कौन है ?" माँने कहा-"तेरा चाचा है।" लड़केने कहा-“माँ ? क्या मेरे पिताके दूसरा भाई भी है ?" माँने कहा-"नहीं नहीं यह तो तेरे कहनेका चाचा है।" लड़केने कहा-" तो माँ, ये चाचा अपने यहाँ रोज आते हैं क्या ?" माँने कहा-"नहीं तो, कभी कभी अपने यहाँ बैठनेके लिए चले आते हैं।" लड़केने कहा-माँ दादानी परगाम गये हैं; वे आवेंगे तब मैं कहूँगा कि, अपने यहाँ अमुक मनुष्य रोज आता है !"
लड़फेकी यह बात सुनकर वह स्त्री घबराई कि, कहीं लड़का अपने दादाको कह देगा तो मेरी बहुत फनीहती होगी । इसलिए मैं ऐसा उपाय करूँ कि, लड़का और इसका दादा मिलनेही न पावें । परंतु ऐसा तो तभी हो सकता है जब, या तो लड़का मरे या उसका दादा मरे । परन्तु इसके दादाको मारनेका तो कोई उपाय नहीं है, इसलिए लड़के को मार डालना ही ठीक है। ऐसा
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सोचकर उसने अपने जार पुरुषको बुलाया । लड़का खा पीकर निश्चित सोता है । सगी मांके आगे बच्चेको डर कैसा ? यह कल्पना भी बच्चेको कैसे आ सकती है कि, मेरी माँ मुझे मार डालेगी । दुष्टा स्त्रीने उस जार पुरुषको कहा कि-" इसे मार डालो" उस पुरुषका हृदय काँपने लगा। उसने कहाः-" हाय ! हाय ! ऐसे निर्दोष बालकको कैसे मारूँ ? अरे बाई ! तेरा यह इकलौता पुत्र है; त इसे मारनेका साहस क्यों करती है ? " स्त्रीने कहा-" हमारी बात लड़का समझ गया है और जरूर यह अपने दादासे ( मेरे श्वशुरसे ) कह देगा। परिणाम यह होगा कि, हमारा आनंद-मजा जाता रहेगा । इसलिए लड़केको पूरा करना ही अच्छा है । अतः आओ हम दोनों इस कामको परा करें।" यद्यपि पुरुषकी हिम्मत नहीं होती थी, उसके हाथ पैर काँपते थे, तथापि उसको स्त्रीकी इच्छाके आधीन होना पड़ा। उन दोनोंने मिलकर-उस निर्दोष निरपराधी बालकके मुँहमें कपड़ा लूंसकर उसे यमराजका अतिथि बना दिया। फिर उन्होंने मिलकर घरके बाहिर खड्डा खोदा और उसमें लड़केके शरीरको गाड़ दिया । उफ ! दुष्ट विषय ! तुझे हनार बार धिक्कार है ! तेरे फंदेमें फंसे हुए उत्तम कुलके मनुष्य भी ऐसे अधमातिअधम कार्य करनेसे पीछे नहीं हटते हैं।
दूसरे दिन उस लड़केका दादा घर आया। आते ही पूछा" अमृतलाल कहाँ है!" (याद रखना चाहिये कि बूढ़ेदादाका
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लड़के पर बहुत प्यार था ।) स्त्रीने कहा-“ स्कूलमें गया है।" लड़का बारह बजे तक नहीं आया, इसलिए बूढा स्कूल में गया । वहाँ खोज करनेसे मालूम हुआ कि, दो दिनसे अमृतलाल स्कूलमें नहीं गया था । यह सुन बूढेका हृदय भयके मारे काँप उठा । घर आकर उसने फिर पूछा, तो उस दुष्टाने कहा" छोकरा आवारा है, न मालूम कहीं भटकता होगा।" कर्मयोगसे बूढा लड़केके सोनेके कमरेमें गया। वहाँ उसने लोहके छींटे पड़े देखे और जमीन लीपी हुई देखी । यहाँ लोहू कैसा ? यहाँ लीपा गया किसलिए ? इत्यादि कल्पना उसके तड़पते हुए हृदयमें उठने लगी। उसने स्त्रीको पूछा । उसने उत्तर दियाः" बिल्लीने चूहेको मारा था इस लिए लीपा था । कहीं लोहूके छींटे रहगये होंगे।"
__ लड़केकी चिन्तामें बूढ़ा पागलसा हो गया। पड़ौसियोंसे पूछताछ करने पर उन्होंने कहा कि-" परसों रातके दस बजे हमने अमृतलालके ऐसे शब्द सुने थे जिससे ज्ञात होता था कि, वह किसी भीषण दुःखसे पीडित हो रहा था।"
बस बूढेकी शंका दृढ हुई । अररर ! यह सगी माँ है तो भी इसके मुँहपर उदासीनता नहीं है । खोज नहीं करती। आखिरको बूढ़ेने पुलीसमें सूचना दी। पुलिसने जाँच शुरू की । स्त्रीके कपड़ोमें खूनके छींटे दिखाई दिये । जब पुलिसने धमकी
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दी, तब उस पापिनीका हृदय काँपने लगा। वह पाप नहीं छिपा सकी। अतः उसने जहाँ लडकेके शरीरके अवयव डाटे हुए थे वह स्थान बताया । तमाम सबूत मिल गई । सरकारने उस स्त्रीको जन्मभरके लिए देश निकालेकी सजा दी। पापिनीने लड़का खोया; आबरुकी खराबी की और दोनों कुलोंमें कलंक लगाया।"
प्रियपाठक ! ऐसा नीचातिनीच कृत्य उस स्त्रीने किसलिए किया ? किसके आधीन होकर किया ? विषयके । वह स्त्री परपुरुषमें रत हुई उसीका यह परिणाम हुआ। स्त्रियोंको सावधानी रखनी चाहिए। ___ उपर्युक्त दृष्टांत ध्यानमें रखकर पुरुषोंकी तरह स्त्रियोंको भी चाहिए कि, वे कभी भी अपने पतिके सिवा पर-पुरुषपर आसक्त न हों। वे अपने शीलकी रक्षाकेलिए-ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिए किसी दुराचारी पुरुषके फंदेमें न फँसे; क्योंकि संसारमें कई वेषघारी भी ऐसे फिरते रहते हैं कि, जो वेष तो साधुका-संन्यासीका रखते हैं; परन्तु उनके आचरण अधम होते हैं । वे मीठी २ बातें बनाकर बिचारी सरल हृदया विधवाओं और सधवाओंके जीवन नष्ट कर देते हैं । एक समय एक वेषधारी एक विधवासे कहने लगा-"बाई ! आजकल तुम दिखाई नहीं देती है क्या साधु संतके दर्शन करना भी भूल गई ? आती रहोगी तो दो अक्षरका ज्ञान प्राप्त होगा। अब तुम्हारे लिए तो संत-साधुका
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संग करना ही योग्य है; क्योंकि-' राधा वल्लभ कृष्ण हैं, विधवावल्लभ संत' इसलिए जरूर समय मिलने पर आती रहो।
यह वेषधारी दुरात्माओंका प्रपंची जाल है । इसलिए प्रत्येक स्त्रीको-चाहे वह विधवा हो या सधवा-ऐसे धूर्तीकी जालसे सर्वथा दूर रहना चाहिए और अपने शीलकी रक्षा करनी चाहिए। उन्हें पर-पुरुषसे नजर नहीं मिलानी चाहिए; पर-पुरुषके साथ एकान्त वास नहीं करना चाहिए । जहाँ तहाँ-इधर उधर भटकना नहीं चाहिए और मर्यादाका उलंघन हो ऐसा वेष नहीं धारण करना चाहिए । विचार करो, प्रातःकालमें जिन सतियोंके नाम लेने से हम पवित्र होते हैं, वे सतियाँ क्यों कहलाइ थीं ? दानसे ? तपसे ? भावसे ? परोपकारसे ? नहीं, केवल शीलधर्म की-ब्रह्मचर्यकी-रक्षा करनेसे । शीलवतको पालनेवाली स्त्री कदापि दुःखी नहीं होती। उसके घरमें क्लेश भी नहीं होता और सासू श्वशुरादि भी बहुतमान करते हैं । वह कुटुंबमें पूना जाती है । सर्वसाधारणमें मानी जाती है। विशेष क्या कहें ? जो स्त्री शील-व्रतका पोषण करती है उसमें तमाम गुण आकर वास करते हैं । कदाचित् मन और वचन किसीके काबूमें न रहे तो भी उसे शरीरसे तो अवश्यमेव ब्रह्मचर्य पालना चाहिए। शरीरसे ब्रह्मचर्य पालनेवाली भी इस संसारमें सुखी होती है और भवान्तरमें आधि-व्याधि और उपाधि से अलग रहती है। अभी कई स्त्रियाँ बचपनमें ही विधवाएँ होती हैं । कई बाँझ रहती हैं।
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और कई मृतक पुत्रको जन्म देती हैं, इत्यादि । उनकी ऐसी स्थिति होनेका कारण क्या है ? यही कि, भवान्तरमें उन्होंने शीलवतका खंडन किया था । शास्त्रकार कहते हैं किः"कुरंडरंडत्तणदहगाई वज्झनिंदुविसकन्नगाई। जम्मंत्तरे खंडिअसीलभावा नाऊण कुआ दढसीलभावं" ||
भावार्थ-जन्मांतर में कियेहुए शीलके भंगसे स्त्री खराब विधवापन, दुर्भाग्य, वाँझपन प्राप्त करती है। मृतक पुत्रको जन्म देनेवाली होती है और विषकन्यादिका अवतार पाती है। इसलिए शीलभावको दृढ़ रखना चाहिए । पतिव्रताधर्म किसे कहते हैं?
स्त्रियोंमें सबसे बड़ा कोई गुण यदि हो तो वह पतिव्रताधर्म है। पतिकी आज्ञामें रहना, पतिके सुखमें सुखी और दुःखमें दुःखी होना यही पतिव्रताका प्रधान लक्षण है। पतिको भी उचित आज्ञा करनी चाहिए । अनुचित नहीं । स्त्री सन्मान भी उचित आज्ञाको ही दे सकती है । यह जानना आवश्यक है कि, उचित आज्ञा कौनसी ? जो आज्ञा महान् विकट और प्राणान्त कष्ट देनेवाली होनेपर भी धर्मके विरुद्ध नहीं होती है वही आज्ञा उचित गिनी जाती है । और जो आज्ञा सुगम और मजेदार होने पर भी धर्मविरुद्ध होती है वह आज्ञा अनुचित है। अनुचित आज्ञा नहीं पालनेसे पतिव्रताधर्ममें दोष नहीं लगता है। मगर
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उचित आज्ञाका पालन करने में प्राणान्त कष्ट भोगना पड़े और प्राणका नाश भी कर देना पड़े तो भी उसे पालना चाहिए। जैसे- किसी स्त्रीको एकवार उसके पतिने परीक्षा करने अथवा अन्य कारणसे कहा-“जा वह सर्प जाता है। उसके दाँत गिन ला।" स्त्रीने सोचा कि; इस आज्ञाको पालनेसे यदि कुछ जायगा तो वह प्राण जायगा, परन्तु धर्म नहीं जायगा, इसलिए इस आज्ञाका पालन करना ही चाहिए। ऐसा सोचकर वह सर्पके पास गई । सर्प फंकार करता हुआ सामने आया । स्त्री एकदम मारे डरके पीछे हट गई । इससे एक फायदा भी हुआ । कुछ समयसे स्त्री, उसकी रीढकी रग बँध जानेसे, कुबड़ी हो गई थी, इस समय वह भयके साथ पीछे हठी, इससे अकस्मात ऐसा झटका लगा कि, उसकी पीठकी बँधी हुई रग खुल गई। और उस स्त्रीकी कमरका टेढापन मिट गया । सर्प चला गया । स्त्रीकी पतिभक्तिके लिए पतिको असीम आनन्द हुआ। यह आज्ञा प्राणघातक होनेपर भी धर्मघातक नहीं थी। ___ दूसरा उदाहरण लो-कोई पुरुष अपनी स्त्रीसे कहे कि" मैं मांस खाता हूँ इसलिए तू भी मांस खा ।" " मैं शगब पीता हूँ इसलिए तू भी पी।" यद्यपि यह आज्ञा प्राणघातक नहीं है तथापि धर्मघातक अवश्य है। इसलिए सुशील और धर्म
+ यदि ऐसी धर्मघातक आज्ञाका पालन न करे, तो क्षिणी ला चर्म नष्ट नहीं होता है। इसीलिए पहिले यह
उससे उसका पतिव्रता
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बताया गया है कि, जिसका कुल और शील समान हो उसके साथ ही लग्न करना चाहिए । वीर्यकी अद्भुत शक्ति । ___ मनुष्यजीवनकी जीवनाधार वस्तु वीर्य है, यह हम पहिले भी कह चुके हैं । इस वीर्यकी रक्षा करनेका प्रयत्न करना है। दूसरे शब्दों में कहें तो मनुष्यके शरीरमें जो जीवनरक्षक पदार्थ है उसीका नाम 'वीर्य' है । स्त्रीके शरीर में जो ऐसी वस्तु है उसे 'रज' या 'आर्तव ' कहते हैं। विद्वान् डॉक्टरोंका मत है कि, रक्तकी चालीस बूंदोंसे मात्र एक वृंद यह जीवनरक्षक पदार्थ बनता है । यह पदार्थ जीवनके लिए कितना उपयोगी है इसके लिए अभीतकका वृत्तांत हमको स्पष्ट बता देता है। और भी एक अंग्रेज विद्वान् डॉक्टर-जिनका नाम मेलवील कीथ एम.डी.
“This seed is marrow to your bones, food for your brain, oil for your joints, and sweetness. to your breath. And if you are a man you should never lose a drop of it, until you are fully thirty years of age and then ouly for the purpose of having a child, which shall be blessed from heaven and ready to become one of the inmates of the Kingdom of heaven by being born again."
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" यह बीन ( वीर्य ) हड्डियोंके लिए मजाके समान है, दिमाग के लिए खुराक है, जोड़के लिए तैल है, श्वासको मीठापन देता है और यदि तुम मनुष्य हो, तो जबतक पूरे तीस वर्षके न हो जाओ तबतक इस पदार्थकी एक भी बूंद खराब न करो। उसके बाद भी यदि व्यय करो तो वह सिर्फ संतति उत्पन्न कर. नेके लिए, कि नो स्वर्गका आशीर्वाद प्राप्त करेगी और वापिस जन्म लेकर स्वर्गके निवासी बननेको तैयार होगी।
(धन्वंतरीके जून, जुलाई, अगस्त संवत्
१९१८ का, अंक पृ. २१०) इसी पदार्थकी शक्तिके प्रतापसे अपने पूर्वक ऋषि महात्मा मनपर अधिकार जमाकर आध्यात्मिक विद्यामें आगे बढ़ते थे,
और आखिरको अतीन्द्रिय ज्ञानी बनते थे । बुद्धिमान् मनुष्य सहनहीमें समझ सकते हैं कि ऐसे उत्तम पदार्थोंको कुमार्गमें व्यय करनेवाले कैसे मूर्ख होते हैं । यह तो हम पहिले ही बता चुके हैं कि, इस पदार्थका व्यय न होने देना, या इस पदार्थकी रक्षा करना 'ब्रह्मचर्य' है । यह बात खेद और आश्चर्यकी है कि, मनुष्य अपने पासकी लक्ष्मीपर इतनी दृष्टि रखता है कि, उसको किंचिन्मात्र इधर उधर नहीं होने देता। मान लो कि, एक मनुष्यके पास पचीस हजारका हीरा है। यह हीरा उसने पाकिटमें रक्खा है। पाकिट जाकिटमें है, जाकिटके ऊपर कोट पहिना है और कोटके ऊपर दुशाला ओढ़ा है। ऐसी स्थितिमें वह मनुष्य
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शीघ्रगामी ईस्ट इंडिया रेल्वेके एक डिब्बे में बैठकर कलकत्त जाता है। उसके डिब्बेमें उसके पुत्र और कुटुंबी मनुष्योंके सिवा दूसरा कोई नहीं है, तो भी इस मनुष्यको यदि जरासा भी नींदका झोका आजाता है तो वह झट अपने खांसेपर हाथ डालता है। कितनी सावधानी ! चंचल लक्ष्मीकी रक्षाके लिए कितनी चंचलता ! कितनी होशियारी ! कोई आया नहीं ! गाड़ी खड़ी नहीं रही, डिब्बे में अपने आत्मीयजनोंके सिवा कोई है नहीं, तो भी हाथ झटसे पाकिटपर ही जाता है । मगर हीरे, माणिक्य और मोतीसे भी लाखोंगुनी. कीमतवाले अपने वीर्यके लिए मनुष्य बिल्कुल परवाह नहीं करते; इतना ही क्यों उसको क्षय करने में एक प्रकारका सुख मानते हैं । मगर यह उनका भ्रम है। विषय-सेवनके समयका सुख ठीक ऐसा ही है, जैसा एक कुत्तेको अपने दाँतसे हड्डी तोडकर खाते समय होता है । हड्डी तोड़ते समय उसके मुँहसे खून निकलने लगता है, उसको अपने उसी रक्तका आस्वादन मिलता है। कामी पुरुष जब कामज्वरसे घिर जाता है, उसवक्त अपने ही पश्रिसे होनेवाले वीर्यपातको वह सुखका कारण मानता है । वस्तुतः यह सुख नहीं है परन्तु दुःखकी पूर्ति है । जो मनुष्य कामन्वरसे पीडित ही नहीं होता और हमेशा ज्ञान, ध्यान, तप, जप, परोपकार और आत्मतत्त्वमें रमण करता है, वही वास्तविक सुखी है और वह मनुष्य निस सुखका अनुभव करता है वही
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सुख अपूर्व और वास्तविक है। हाथमें फफोला-छाला-होता है; झपकता है, डॉक्टर आप्रेशन करके अंदरसे पीप निकाल डालता है तब मनुष्य कहता है 'बहुत अच्छा हुआ !' क्या मुख हुआ ? मगर जिसके फफोला हुआ ही नहीं, उसे यह कहनेका प्रसंग आयगा ? कदापि नहीं । तो कहना पड़ेगा कि, 'कामी पुरुष जिस वेदनासे घिराहुआ था, उस वेदनाका अंत आया, उसीको वह सुख मानता है। परन्तु हम कहचुके उसीतरह वह सुख नहीं है, परन्तु दुःखकी पूर्ति है । वास्तविक सुखका अनुभव तो निष्कामी पुरुष ही कर सकते हैं । ऐसी निष्कामी अवस्थामें ब्रह्मचर्यावस्थामें रहकर मनुष्योंको वास्तविक सुखका मजा लूटना चाहिए। ब्रह्मचर्यका प्रताप । ___ब्रह्मचर्यके लिए जितना कहाजाय उतना ही थोड़ा है। धर्मग्रंथों, वैद्यकशास्त्रों और मानसशास्त्रोंमें जगह जगह ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिए बड़े जोरसे लिखा गया है। यदि उन सब वाक्यों, उन सब श्लोकों और उन सब युक्तियोंका आधार लेकर कुछ लिखा जाय, तो एक महाभारत बन जाय और ऐसा होनेसे जिस हेतुसे यह छोटीसी पुस्तक लिखी गई है, वह हेतु सिद्ध न हो । इसलिए अब थोडेहीमें ब्रह्मचर्यकी महिमा-प्रताप बता कर यह पुस्तक समाप्त की जायगी।
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ब्रह्मचर्य अर्थात् शीलकी महिमा बताते हुए शास्त्रकारोंन कहा है कि:-- "शीलं प्राणभृतां कुलोदयकरं शीलं वर्भूपणं
शीलं शौचकरं विपद्भयहरं दौर्गत्यदुःखापहम् । शीलं दुर्भगतादिकन्ददहनं चिन्तापाणः प्रार्थिते व्याघ्र-व्याल-जलानलादि-शमनं स्वर्गापवर्गप्रदम् ।।१।।
अर्थात्-मनुष्योंके कुलका उदय करनेवाला शील है। शरीरका भूषण शील है, पवित्र करनेवाला और आपतिको हरनेवाला शील है, दुर्गतिके दुःखका नाश करनेवाला भी शील है, और दौर्माग्यादि रूपी कंदको जड़ मूलसे जलानेवाला भी शील ही है । शील इच्छा पूर्ण करने में चिंतामणिरत्नके सदृश है इतना ही नही परन्तु व्याघ्र, सर्प, पानी और अग्निआदिक उपद्रोंको शान्त करनेवाला भी शील है, और स्वर्ग तथा मुक्तिका देनेवाला भी शील ही है। ____ ध्यानपूर्वक खोन करनेसे मालुम होता है कि, एक ब्रह्मचर्यधर्म ही तमाम धर्मों की प्राप्तिका कारण है । नारदके नामसे कौन अज्ञात है ? क्लेशप्रिय, लोगोंको लड़ा मारनेवाला, द्रौपदी जैसी महासतीका हरण करानेवाला, उनके ब्रह्मर्यके लिए लोगोंको शंका हो, ऐसे वचनोंका प्रयोग करनेवाला, और हजारों मनुष्योंके संहारका कारणमृत नारद महापुरुषोंकी पंक्किमें रक्खा
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गया और ' मुक्तिगामी ' कहलाया, यह मात्र उसके शुद्ध ब्रह्मचर्यहीका प्रताप है और कुछ नहीं। ऐसे ब्रह्मचर्यकी क्या तारीफ की जाय ? तत्त्वज्ञ कहते हैं कि:
"तुर्य ब्रह्मव्रतं नाम परमब्रह्मकारणम् ।
शौचानां परमं शौचं तपसां च परं तपः" ॥ १॥
अर्थात्-चौथा व्रत ब्रह्मचर्य है, वह मोक्षका कारण है। शौचोंमें उत्तम शौच है और तपोंमें सर्वोत्कृष्ट तप है। जैनसिद्धांत भी कहते हैं कि:--
तवेसु वा उत्तम बंभचेरं ।। चाहे साधु हो या तपस्वी, यदि उसमें ब्रह्मचर्य नहीं है तो समझो कि, उस साधु साधुत्व नहीं है और तपस्वीमें तपस्विता नहीं है । उसके पठन पाठन और क्रियाकांड सब भाररूप हैं। इसलिए कमसे कम ब्रह्मचर्य धर्मकी तो प्रत्येक मनुष्यको रक्षा करनी ही चाहिए । इस ब्रह्मचर्यके लिए ऊपर कहा जा चुका है कि, इसका प्रताप मनुष्यको पानी, अग्नि आदि कष्टोंसे भी बचा लेता है । यह बात, हम एकस्त्रीका उदादरण देंगे इससे पाठकोंको भलीमाँति ज्ञात हो जायगी ।
"एक मनुष्य अपनी स्त्रीको घरपर छोड़कर परदेश गया । स्त्री शीलवतपालने में बहुत दृढ थी । उसने स्वप्न में भी परपुरुषकी इच्छा नहीं की थी। दो साल के बाद जब उसका पति परदेशसे
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वापिस आया; तब उसने पतिको अच्छी तरह स्नानादि करवा कर उत्तमोत्तम भोजन करवाया । पान सुपारी दिये, पश्चात् आगम देनेके लिए उसने अपने पतिको कहा कि:-" आप मेरी गोदमें सिर रखकर सो जाइए।"पतिने उसके कथनानुसार आराम किया। उसे निद्रा आगई। उस समय घरमें स्त्री-पुरुष और उनके २॥ साल उम्र के बच्चेके सिवा अन्य कोई नहीं था। बच्चा आँगनमें खेलता खेलता एक अग्निकुंडके पास पहुँचा । वह कुँड किसी हेतुसे मकानके आँगनमें बनाया गया था। स्त्रीने बच्चेको अग्निकुंडसे दूर हटनेके लिए बहुत कुछ हाथका इमारा किया-बहुत चेष्टा की, परन्तु वह लड़का वहाँसे नहीं हटा, और अचानक धगधगते अग्निकुंडमें जा गिरा । यद्यपि स्त्री यह बात समझ गई थी कि, इतना नजदीक गया हुआ लड़का जरूर अग्निकुंडमें गिरेगा तथापि वह यह सोचकर मन मारे बैठी रही कि, यदि उलूंगी या बोलूंगी तो पतिकी निद्राका भंग होगा और उनके आराममें विघ्न पड़ेगा। ____ लगभग आध घंटे बाद वह पुरुष जागा, और टाल तथा पानी मँगवा कर मुँह धो पोंछ, स्वस्थ हुआ, उसके बाद उसने स्त्रीको पूछा कि --- 'लड़का कहाँ गया ?' स्त्री थोड़ी देर चुप रही पीछे धीरेसे बोली:-"नाथ ! लड़का उस अग्निकुँडमें गिर गया ।" पुरुषने कहा-." क्या तुम जानती थी ? " स्त्रीने कहा-"हाँ" पतिने कहा--" क्यों नहीं बचाया ? " स्त्रीने कहा-"बचाती किस तरह ? यदि मैं उठती या आवाज करती
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________________ યશો, भावनगर IloIlec तो आपकी निद्रा भंग हो जाति / " "हैं भयसे तुमने पुत्र खोया !" स्त्री बोलीखोनेकी अपेक्षा पुत्रको खो देना ही हुआ।" पति गुस्से हुआ, उसने पाँच सुनाई, परन्तु वह स्त्री समभावपूर्वक शांत ही रही / पश्चात् दोनों कुंडके पास जाकर क्या देखते हैं कि, उस कुँडमें बहुत सुंदर और स्वच्छ पानी भरा हुआ है और लड़का उसमें खेल कूद रहा है / यह देखकर दोनों स्तब्ध हो गये। पुरुषके आश्चर्यका तो कुछ पार ही न रहा / धीरे 2 विचार करने पर उसे ज्ञात हुआ कि, मेरी स्त्रीके पातिव्रत्यप्रभावहीसे बच्चेकी जान बची है। वाह ! शीलधर्मका कितना बड़ा प्रभाव !! ऐसे अनेक दृष्टांत शोटको महिमाके शास्त्रों में मौजुद हैं; परन्तु वे सब दृष्टांत देकर पुस्तकके पेज बढ़ानेकी आवश्यकता नहीं है। इन थोड़ेसे उदाहरणों और प्रमाणोंपर भी यदि मनुष्य विचार करें तो वे बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। इसी तरह महासती सीताका ज्वलंत उदाहरण लोगोंसे अज्ञात नहीं है। सीता जैसी महासतीने रावण जैसे दुराचारी पुरुषके हाथमें जानेपर भी अपने शीलकी-ब्रह्मचर्यकी किसतरह रक्षा की थी ? "ऐश्वर्यराजराजोऽपि रूपमीनध्वजोऽपि च / सीतया रावण इव त्याज्यो नार्या नरः परः || ऐश्वर्यमें राजराजेश्वर और रूपमें कामदेवके समान रावणका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com