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हम तो इस मन्तव्यको उसी समय सच्चा मानेंगे जिस समय कि, अग्निमें घी डालनेस अग्नि शांत हो जायगी। मनुष्य जितना ज्यादा विषयसेवन करता है उतनी ही ज्यादा उसकी लालसा बढ़ती जाती है । लालसा कभी तृप्त नहीं होती। मनुजी मनुस्मृतिके दूसरे अध्यायमें कहते हैं किः
"न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते" ॥ ९४ ॥
अर्थात्-विषयसेवनसे कभी कामवासनाकी तृप्ति नहीं होती । बल्के उसकी तो, अग्निमें घृत डालनेसे जिसतरह अग्नि ज्यादा प्रज्वलित होती है उसीतरह, वृद्धि होती है।
कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचंद्राचार्य भी योगशास्त्र के दूसरे प्रकाशमें उपर्युक्त बातको निम्नलिखित शब्दोंमें कहते हैं।
"स्त्रीसंभागेन यः कामज्वरं प्रतिचिकीर्षति । स हुताशं घताहुत्या विध्यापयितुमिच्छति" ।। ८१ ।।
अर्थात्-जो मनुष्य स्त्रीसंभोगसे कामज्वरको शान्त करना चाहता है, मानो वह घृताहुतिसे अग्निको शांत करनेका प्रयत्न करता है । अर्थात्-घृतकी आहुती जैसे अग्नि शांत न होकर ज्यादा प्रदीप्त होती है, उसीतरह विषय-सेवनसे कामज्वर शांत न होकर उल्टा ज्यादा प्रज्वलित होता है । इस लिए यह प्रयत्न तो और भी ज्यादा हानिकर्ता है।
निनको विषयसेवनकी चाट लग जाती है, उनकी चाटका
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