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है, इस बातको ध्यानमें रख कर वीर्यकी रक्षा करनेवाले साधु
ओंको चाहिए कि वे ' प्रणीत ' और 'गरिष्ठ वस्तुएँ जो जल्दी कामको सतेज करती हैं। कभी न खाया करें । हाँ कमी किसी खास कारणके लिए खा भी जायँ तो कोई हरकत नही हैं। परन्तु शरीरकी शोभावृद्धि करनेके लिए अथवा शरीरकी पुष्टिके लिए ऐसा आहार लेना साधुओंके लिए बिलकुल मना है । ऐसा होनेपर भी जो इन उद्देश्योंकी पूर्तिके लिए उपर्युक्त कथनानुसार आहारका उपयोग करता है, वह केवल नामधारी-वेषधारी साधु है; कर्तव्य परायण साधु नहीं । शास्त्रकार धर्मग्रंथोंमें वारंवार घी, दूध, दही, मिष्टान्न और तेल आदि विकार उत्पन्न करनेवाले पदार्थ खानेकी मनाई करते हैं । यद्यपि भक्त गृहस्थ भक्तिके आवेशमें आकार ऐसी ऐसी वस्तुएँ जितनी चाहिए उतनी दे देतेहैं; परन्तु आत्मार्थी साधुओंको अपना विचार आप ही करना चाहिए । उपर हम यह बात बता चुके हैं कि ' गृहस्थ जिसतरह द्रव्योपार्जन हिताथ विदेश जाते हैं, उसी प्रकार आत्मार्थी पुरुष शिवमंदिरमें-मोक्षमें जानेके लिए विदेशभ्रमण करते हैं। उनमेंसे जो अपने उद्देश्यको लक्षमें रखता है वही अपने व्रत-नियमादिकी रक्षा कर सकता है। अतः अपने ब्रह्मचर्यकी रक्षाके आकांक्षिओंको ऐसे आहारविहारसे सर्वथा दूर रहना चाहिए जिनका जिक्र ऊपर किया जा चुका है।
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