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अपनी विवाहिता स्त्रीके साथ संभोग कर संतोष मानना और उसके सिवाय सर्व स्त्रीजातिको माता, बहिन अथवा पुत्री तुल्य समझना चाहिए । इन दो भेदोंको कई "प्रधान" और "गौण" के नामसे भी पुकारते हैं । वे कहते हैं-साधु वे हैं जिन्होंने स्त्री, लक्ष्मी पुत्र, परिवार वगैरह सर्व सांसारिक उपाधियोंसे विरक्तता धारण कर दीक्षा द्रहण करली है; जो स्वपरकल्याणके लिए शरीरको उपयोगी समझकर भिक्षावृत्तिद्वारा उसकी पालना करते हैं और उससे स्थान स्थान पर जा कर लोगोंको उपदेश देनेका कार्य लेते हैं । जो संसारकी सर्व स्त्री-जाति मात्रको अपनी माता, बहिन और पुत्री के तुल्य समझ कर विषयवासनासे वंचित रहते हैं वे ही इसतरह ब्रह्मचर्यका पालन करनेवाले ही-सच्चे साधु होते हैं। ऐसे साधुओंको चाहिए कि वे अपने ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिए शास्त्रकारोंके ज्ञानी पुरुषों के बाँधे हुए किले में-नियमोंमें जरूर रहें । संसारकी परिस्थितियाँ ऐसी बलवान हैं कि मनुष्योंपर उनका असर हुए विना नहीं रहता। अग्निके पास रक्खा हुआ घी कब तक जमा रह सकता है ! सिंहके आगे खडाहुआ मृग कहाँतक जिन्दा रह सकता है ? इसीतरह संसारकी अनियमित मोहक परिस्थितियों में रहनेवाला साधु भी कैसे अपने ब्रह्मचर्यकी रक्षा कर सकता है ? नहीं कर सकता । इसलिए जो साधु अपने ब्रह्मचर्यकी संपूर्णतया रक्षा करना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि वे अपने मनको भूलकर भी
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