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मूल ग्रंथकर्ताकेदो-शब्द ।
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'प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते ।' यह एक सामान्य लोकोक्ति है कि, विना प्रयोजनके मंदपुरुष भी किसी कार्यमें हाथ नहीं डालता है । अत एव सिद्ध होता है कि, इस ब्रह्मचर्य दिग्दर्शन के लिखने में भी कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए । इस कारणको बतानेहीके लिए, इस छोटीसी पुस्तकमें भूमिकाकी आवश्यकता न होने पर भी, 'दो-शब्द'के रूपमें कुछ लिखना आवश्यक समझा गया है ।
इस कहावतको प्रायः लोग जानते है कि:'एक तन्दुरुस्ती हजार न्यामत ।'
बात भी सत्य है कि, प्रत्येक सुख शरीरकी नीरोगताहीमें है । करोड़ों रुपयोंको सम्पत्ति हो, घोड़े, हाथी, गाड़ी, बैल आदि सब तरहका वैभव हो और नीरोगता न हो तो वैभव आनंद नहीं देसकता; वह व्यर्थ है । इसी भाँति धर्मसाधनकी क्रियाओंमें भी शरीरके स्वास्थ्यकी आवश्यकता सबसे पहिले होती है । इसी लिए कवि कालिदामने कहा है कि"शरीरमाधं खलु धर्मसाधनम् ।" इसलिए मनुष्यको सबसे पहिले शरीरका सुख तो मिलना ही चाहिए । परन्तु संसारमें ऐसे मनुष्य बहुत ही कम हैं जो शरीरसे सर्वथा सुखी हैं। शरीरका सुख शरीरकी स्थूलनामोटाईमें नहीं है । इसी प्रकार शरीरकी कृशता-पतलेपनमें भी नहीं है । शरीरका सुख शरीरस्थ उस शक्तिम है जो प्रत्येक अवयवमें ओतप्रोत हो रही है। जिस मनुष्यकी यह शक्त सतेज, सुदृढ और सघन होती है, उसी मनुष्यके लिए कहा जासकता है कि, यह सुखी है। जिसमें वह शक्ति जबर्दस्त होती है, उस मनुष्यका मनोबल भी जबर्दस्त हो जाता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com