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ब्रह्मचर्य की यदि विस्तृत रूपसे व्याख्या कीजाय तो वह इस तरह होगी कि - मनुष्यको- स्त्री या पुरुषको विषयकी इच्छासे एक दूसरेका स्पर्श भी नहीं करना चाहिए। इतना ही नहीं; विषके विचारों को भी उसे अपने हृदयमें स्थान नहीं देना चाहिए ।
इस ब्रह्मचर्यकी पराकाष्ठा तो हम तब ही मान सकते हैं, जब विषय संबंधी बातोंका स्वप्न भी न आवे । विषयकी इच्छा लेशमात्र भी हृदय में उत्पन्न न हो । एसी स्थिति में पहोंच नेवालेको ही हम ब्रह्मचर्य की पराकाष्ठातक पहोंचा हुआ कह सकते हैं । इस स्थिति में जितनी न्यूनता होगी उतनी ही ब्रह्मचर्य में भी न्यूनता होगी । प्रत्येकको यह भली प्रकार समझना चाहिए । वीर्यरक्षाकी आवश्यकता |
इस ब्रह्मचर्यकी रक्षा करना वीर्यकी रक्षा करना, साधु या गृहस्थ, बालक या वृद्ध, स्त्री या पुरुष - प्रत्येक के लिए आवश्यकी है। दूसरे शब्दों में कहें तो वीर्यरक्षा करना मानो आत्मरक्षा करना है । धार्मिक नियमोंको छोड़कर यदि वैद्यक नियमोंसे देखेंगे तो भी ज्ञात होगा, कि वीर्यके वैद्यकके ग्रंथ भावप्रकाशमें कहा है कि:
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अंदर जीव रहते हैं ।
"जीवो वसति सर्वस्मिन् देहे तत्र विशेषतः । वीर्ये रक्ते मले यस्मिन् क्षीणे याति क्षयं क्षणात् ॥"
अर्थात् - यद्यपि जीव सारे शरीर में रहता है, तो भी वीर्य,
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