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नियमोंका पालन नहीं करते हैं, वे मन, वचन और कायासे ब्रह्मचर्यका पालन भी नहीं कर सकते हैं।
साधुओंके लिए इतने कठोर नियम बनानेका कारण यही है कि चारित्रका-साधुत्वका-भूषण मात्र एक ब्रह्मचर्य ही है । कोई साधु हजारों प्रकारकी क्रियाएँ करता हो; केशका लोच करता हो, कठोर तपस्याएँ करता हो; अथवा गंगातट पर जाकर पंचाग्नि तापनेका कष्ट सहता हो, वही यदि एक ब्रह्मचर्यका पालन नहीं करता हो, तो उसकी तमाम क्रियाएँ व्यर्थ हो जाती हैं। ब्रह्मचर्यसे परिभ्रष्ट साधु अपने जीवनको खराब करते हैं और भविष्यकी योनिमें उनको नरकादिके कष्ट सहने पड़ते हैं । शातातपस्मृतिके १९ वें अध्यायमें कहा है किः
“यस्तु प्रव्रजितो भूत्वा पुनः सेवेत मैथुनम् ।
षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः" ॥ ६० ॥
अर्थात्-दीक्षा लेनेके पश्चात्--संन्यासी होनेके पश्चात्-जो मनुष्य पुनः विषय सेवन करता है, वह साठ हजार वर्ष तक विष्ठाका कीड़ा रहता है।
इसी तरह प्रत्येक धर्म शास्त्रने ब्रह्मचर्य-मंगके भयंकर दुःख बताए हैं । और यह बात है भी वास्तविक । कारण कि-साधु उच्च कोटिकी अवस्था है । ऐसी अवस्था धारण करनेके पश्चात् भी जो गुप्तरूपसे ऐसी नीचताके कार्य करते हैं, उनके लिये संसारमें इससे ज्यादा दूसरा घोर पाप और कौनसा होसकता है।
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