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________________ उनके हृदयमें धर्म ही नहीं है। कइयोंको यह बात सच प्रतीत नहीं होती। इसके लिए हम एक दृष्टांत देंगे । वह यह है-मान लो कि, परस्त्रीसेवन करनेवाले मनुष्यने अमुक स्त्रीको सूचित किया है, कि मैं अमुक समयमें अमुक स्थानपर तुझसे मिलँगा । उस समयमें यदि उस मनुष्यके पूज्य गुरु आ जायँ-या साक्षत् ईश्वर ही आ जायँ तो भी क्या वह मनुष्य गुरुके-ईश्वरके दर्शन करने जायगा ? कभी नहीं । वह तो हजारों काम छोड़कर-पटककर उसकी उस माननीया देवीके दर्शन करने ही जायगा । यह आचरण क्या बताता है ! केवल उसके हृदयमें धर्मकी इच्छाका अभाव । इसलिए ऐसे धर्महीन और दुराचरी मनुष्य तो अपने शरीरका नाश करते ही हैं। परन्तु अपनी स्त्रीके साथ मर्यादा तनकर विषयसेवन करनेवाले मनुष्य भी अपने शरीरको अवश्यमेव नष्ट करते हैं । इसलिए मनुष्यमात्रको शास्त्रमर्यादाका खयाल अवश्य ही रखना चाहिए । विषयसेवनकी मर्यादा क्या है ? इस मर्यादाको बताते हुए भावप्रकाशमें कहा है कि,-'ऋतौ भार्यामुपेयात्' अर्थात् ऋतुकालमें पुरुषको अपनी स्त्रीके पास जाना चाहिए । रजस्वलास्त्रीके 'ऋतुस्राव ' होता है, उस दिनसे १६ दिनतक 'ऋतुकाल , गिना जाता है । वैद्यकशास्त्रके नियमानुसार स्त्रीके गर्भ रहनेका यही समय है । इन दिनोमेंसे स्त्री पुरुषको एक दिन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034783
Book TitleBramhacharya Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri, Lilavat
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1925
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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