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सुख अपूर्व और वास्तविक है। हाथमें फफोला-छाला-होता है; झपकता है, डॉक्टर आप्रेशन करके अंदरसे पीप निकाल डालता है तब मनुष्य कहता है 'बहुत अच्छा हुआ !' क्या मुख हुआ ? मगर जिसके फफोला हुआ ही नहीं, उसे यह कहनेका प्रसंग आयगा ? कदापि नहीं । तो कहना पड़ेगा कि, 'कामी पुरुष जिस वेदनासे घिराहुआ था, उस वेदनाका अंत आया, उसीको वह सुख मानता है। परन्तु हम कहचुके उसीतरह वह सुख नहीं है, परन्तु दुःखकी पूर्ति है । वास्तविक सुखका अनुभव तो निष्कामी पुरुष ही कर सकते हैं । ऐसी निष्कामी अवस्थामें ब्रह्मचर्यावस्थामें रहकर मनुष्योंको वास्तविक सुखका मजा लूटना चाहिए। ब्रह्मचर्यका प्रताप । ___ब्रह्मचर्यके लिए जितना कहाजाय उतना ही थोड़ा है। धर्मग्रंथों, वैद्यकशास्त्रों और मानसशास्त्रोंमें जगह जगह ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिए बड़े जोरसे लिखा गया है। यदि उन सब वाक्यों, उन सब श्लोकों और उन सब युक्तियोंका आधार लेकर कुछ लिखा जाय, तो एक महाभारत बन जाय और ऐसा होनेसे जिस हेतुसे यह छोटीसी पुस्तक लिखी गई है, वह हेतु सिद्ध न हो । इसलिए अब थोडेहीमें ब्रह्मचर्यकी महिमा-प्रताप बता कर यह पुस्तक समाप्त की जायगी।
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