Book Title: Bramhacharya Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri, Lilavat
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 37
________________ इसी तरह ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिए उपयुक्त ग्रंथमें बौद्ध साधुओंको भोजनादिमें भी विचार रखनेके नियम बताये गये हैं। जैसे किः३१ अगिलानेन भिक्खुना एको अवसथपिण्डो भुञ्जितब्बो, ततो चे उत्तीरं भुजेय, पाचित्तियं । ३३ परम्पर भोजने अत्र समया, पाचित्तियं । ३७ यो पन भिक्खु विकाले खादनीयं वा भोजनीयं वा खादेय्य वा भुभेय्य वा, पाचित्तियं । (पृ० २९-३०) अर्थात्-अपीडित साधुको आवसथपिंडका ( आवसथ यह बौद्धोंके सांकेतिक विश्रामगृहका नाम है ) एक ही समय भोजन करना चाहिए । जो उससे अधिक भोजन करताहै, वह प्रायश्चित्तका भागी बनता है । पीडादि खास कारण विना वारंवार भोजन करनेवाला साधु भी प्रायश्चित्तका भागी बनता है और जो साधु समय विना-अनियमित समयमें खाद्यपदार्थ खाता है वह भी प्रायश्चित्तका भागी बनता है। इसी प्रकार घी, दूध, दही, तैल, गुड आदि गरिष्ठ पदार्थ खानेका भी बौद्ध साधुओंके लिए निषेध किया गया है। ये सब नियम केवल ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिए ही बनाये गये हैं; इन सब नियमोंकी रचना इसी लिए की गई है कि-इन्द्रियोंको किसी प्रकारकी उत्तेजना न मिले और विना प्रयास ही उनका दमन हो जाय । जो साधु इन नियमोंका उल्लंघन करते हैं-इन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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