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संग करना ही योग्य है; क्योंकि-' राधा वल्लभ कृष्ण हैं, विधवावल्लभ संत' इसलिए जरूर समय मिलने पर आती रहो।
यह वेषधारी दुरात्माओंका प्रपंची जाल है । इसलिए प्रत्येक स्त्रीको-चाहे वह विधवा हो या सधवा-ऐसे धूर्तीकी जालसे सर्वथा दूर रहना चाहिए और अपने शीलकी रक्षा करनी चाहिए। उन्हें पर-पुरुषसे नजर नहीं मिलानी चाहिए; पर-पुरुषके साथ एकान्त वास नहीं करना चाहिए । जहाँ तहाँ-इधर उधर भटकना नहीं चाहिए और मर्यादाका उलंघन हो ऐसा वेष नहीं धारण करना चाहिए । विचार करो, प्रातःकालमें जिन सतियोंके नाम लेने से हम पवित्र होते हैं, वे सतियाँ क्यों कहलाइ थीं ? दानसे ? तपसे ? भावसे ? परोपकारसे ? नहीं, केवल शीलधर्म की-ब्रह्मचर्यकी-रक्षा करनेसे । शीलवतको पालनेवाली स्त्री कदापि दुःखी नहीं होती। उसके घरमें क्लेश भी नहीं होता और सासू श्वशुरादि भी बहुतमान करते हैं । वह कुटुंबमें पूना जाती है । सर्वसाधारणमें मानी जाती है। विशेष क्या कहें ? जो स्त्री शील-व्रतका पोषण करती है उसमें तमाम गुण आकर वास करते हैं । कदाचित् मन और वचन किसीके काबूमें न रहे तो भी उसे शरीरसे तो अवश्यमेव ब्रह्मचर्य पालना चाहिए। शरीरसे ब्रह्मचर्य पालनेवाली भी इस संसारमें सुखी होती है और भवान्तरमें आधि-व्याधि और उपाधि से अलग रहती है। अभी कई स्त्रियाँ बचपनमें ही विधवाएँ होती हैं । कई बाँझ रहती हैं।
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