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बहुत आवश्यकता है । इनमें भी सत्य और प्रेमकी वृद्धि तथा शुद्धि करनेवाले ब्रह्मचर्यकी आवश्यकता तो सबसे पहिले है। परन्तु यदि विधवा-विवाहका प्रचार हो गया तो ब्रह्मचर्यकी मर्यादा नहीं रहेगी । और विधवा-विवाह शुरू हो जायगा तो कोई साध्वी भी नहीं होगी। ओह ! साध्वी होना तो दूर रहा, गृहवस्थावस्थामें रहकर भी स्त्रियाँ निर्मल जीवन व्यतीत नहीं कर सकेंगी। निदान उनकी धार्मिकलागणी-धार्मिकवृत्ति तो कभी भी नहीं सुधरेगी। और परिणाम यह होगा कि, हलके लोगोंकी तरह चालीस चालीस या पचास पचास वर्षका पुत्र होने पर भी-और उनके पुत्रोंके ऊँची स्थितिमें पहुँच जाने पर भी विधवाएँ पति करके रहने लगेंगी । युरोपमें भी राज्य-कुटुंबी लोगोंमें विधवा-विवाहका प्रचार नहीं है । इससे भी हम सिद्ध करसकते हैं कि, यह रीति प्रशंसनीय नहीं है; बल्के निंदनीय है। इसलिए विधवा-विवाहके पक्षपातियोंको इस बातपर अवश्य ध्यान देना चाहिए । और जो मनुष्य केवल व्यभिचार-दुराचारका प्रचार करने के लिए ही विधवा-विवाहका प्रचार करनेमें बुद्धिमत्ता समझता हो, उसके लिए तो कुछ कहना ही व्यर्थ है । स्त्री सदाचारिणी कैसे रह सकती है ?
यह बात तो सब समझ सकते हैं कि, स्त्रीजातिकी, ब्रह्मचर्य पलवानेकेलिए, पुरुषोंसे भी ज्यादा खबर रखनेकी जरूरत है।
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