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हुवा है और न होगा । प्रकृतिके नियमानुसार सब कार्य होते रहते हैं । मनुष्य अपने शरीरका मालिक है । ऐसी बातोंके संबंधमें वह केवल अपने ही लिए विचार कर सकता है। अन्यके लिए नहीं । मनुष्यको यह सोचना चाहिए कि मैं जीवनभर अखंड ब्रह्मचर्यका पालन कर एक वीर पुरुष कैसे बन सकता हूँ ? उसको यह न सोचना चाहिए कि यदि दूसरे भी मेरे जैसे हो जाँयेगे तो दुनीयाका क्या हाल होगा ? कोई मनुष्य जब कपड़ेका, वकालतका या किसी अन्य प्रकारका धंधा-रोजगार शुरू करता है तब वह यह नहीं सोचता है, कि यदि सब लोग यही काम करेंगे तो दूसरे धंधोंका-कामोंका क्या होगा ? वह तो अपने लिए कार्य करता है । कुदरती नियमानुसार संसारके सब कार्य होते रहते हैं; परन्तु हमें वही कार्य करना चाहिए जिसमें लाभ होता हो और साथ ही वह कार्य वास्तवमें अच्छा भी हो। पुत्रप्राप्तिकी इच्छासे ब्रह्मचर्यका नाश करना ।
इस समय एक और भी शंका उत्पन्न होती है कई जगह लिखा है कि,
" अपुत्रस्य गतिनास्ति स्वों नैव च नैव च ।
तस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा स्वर्ग गच्छन्ति मानवाः" ॥१॥ भावार्थ--पुत्रविहीनकी गति ( सद्गति ) नहीं होती; और स्वर्ग तो उसको कभी मिलता ही नहीं। इसलिए पुत्रका मुख
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