Book Title: Bramhacharya Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri, Lilavat
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 68
________________ योंकी प्रणालियाँ तुम्हारी और तुम्हारी ज्ञातिकी . णालियों से बिलकुल भिन्न हैं, उन ज्ञातियोंकी कन्याओंको लाकर तुम अपने घरोंमें मत बिठाओ; उनके साथ ब्याह मत करो। ___यदि हम दीर्घदृष्टि से देखेंगे तो ज्ञात होगा कि, जिस देशमें जातिबंधन नहीं है वहाँ भी ऊँच नीचका व्यवहार अवश्य होता है। इतना ही नहीं वहाँ उस व्यवहारके अनुकूल ही कार्य भी होते हैं । यूरोपमें जो लोग राज्यकुटुंबी और 'लॉर्ड' के नामसे पहिचाने जाते हैं, वे मोची या चमारा काम करनेवाले लोगोंके साथ एक ही टेवलपर बैठकर खाना नहीं खाते । जब वे लोग भी इतना विचार करते हैं, तब फिर आर्यावर्तमें उप्तन्न होनेवाली संतति का क्या यह कर्तव्य नची है कि, वह कर्तव्यके हेतु ऊँचनीचका व्यवहार रक्खे । जैनसिद्धांतोमें भी मनुष्योंके जातिसंपन्न कुलसंपन्न, और उससे विपरीत ऐसे दो विभाग बताये गये हैं। मगर इसमे हम कुछ संकुचित हृदयके मनुष्योंकी तरह यह कहना नहीं चाहते हैं कि, तुम शूद्र लोगों को अथवा हलकी ज्ञातिके लोगोको ज्ञान मत दो अथवा धर्म मत सिखाओ । कइयोंने ऐसा कहा है कि,-"जो शुद्र को उपदेश अथवा व्रत देता है, वह असंवृत नामकी नारकीमें जाता है।" यह बात बिलकुल पक्षपातसे भीहुई हैं । शूद्रादिकोंके आत्मा भी तो मूलस्वरूप सच्चिदानन्दमय ही हैं । परन्तु कर्मके कारणसे उनको ऐसी जातिकी प्राप्ति हुई है। ईसलिये उचित व्यवहारसे उनको भी उपदेश देना चाहिए; Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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