Book Title: Bramhacharya Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri, Lilavat
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 67
________________ हलके आचरणली स्त्रीको इधर उधरसे लाकर अपने घरमें बिठा लेते हैं । इतना ही नहीं वे व्यवहार और शास्त्रमर्यादाको भी तोड़र ऐसी स्त्रीको अपनी अर्धांगिनी बनाते हैं और इसमें अपनी शोभा समझते हैं । आर्यावर्तकी आर्यप्रजाका ऐसा आयत्व ! जिनके हृदयमें लोहमें और शरीरकी एक २ हड्डीमें आर्यत्वका-अध्यात्मका अभिमान बहते रहना चाहिए था; प्रतिकूल इसके वे ही मनुष्य वर्तमानमें चाहे जैसी अधमकुलकी और खराब आचरवाली स्त्रीके पति बननेमें ही अपना गौरव समझते हैं ! अपनी शोभा समझते हैं ! खेद । अफसोस !! हे आर्यपुत्रो ! हे भारतसंतानो ! तुम्हारे प्राचीन ऋषियों और महार्षियोंके वाक्योंका जरा तो स्मरण करो। तुम्हारे आर्यभिमानी पूर्वपुरुषोंके आचरणोंको थोडाबहुत तो काम, लाओ। बेशक, तुम हलके काम करनेवाली ज्ञातिके मनुष्योंको शिक्षा दो, उनको समझाओ कि, सत्य क्या चीन है ? प्रेम क्या चीज है ! ब्रह्मचर्य क्या चीज है ? और आहारविहारकी शुद्धता कैसी होनी चाहिए ! उनके आचार-विचारोंको सुधारो; और उनको अच्छे अच्छे काम करना सिखलाओ। ऐसा करना तुम्हारा कर्तव्य भी है । परन्तु ऐसा मत समझो कि तुम उनको अपने साथ बिठाकर या अपने साथ भोजन करा कर स्वर्गका सुख दे रहे हो । जो ज्ञातियाँ तुमसे आचारविचारमें मिलती नहीं हैं, जो ज्ञातियाँ तुमसे आहारविहारमें समान नहीं हैं, और जिन ज्ञाति. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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