Book Title: Bramhacharya Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri, Lilavat
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 40
________________ वह अपना निश्चित किया हुआ कार्य अच्छी तरहसे पूरा करता अगर हम वर्तमान स्थितिपर ध्यान देते हैं, तो हमें कितने ही नामधारी साधुओंके-संन्यासियोंके ब्रह्मचर्यके लिए शंका उत्पन्न होती है । अशक्ति, खाँसी, दमा, छातीका दर्द, दिमागका खाली होजाना वगैरा कारण दिखाकर साधु चंद्रोदय, वसन्तमालती, मोतीकी भस्म, ताम्रभस्म और याकूति वगैरा दवाइयोंका सेवन करते हैं। इतना ही नहीं बल्के उनपर दूध मलाई वगैरा पौष्टिक पदार्थोंका भी-जो साधुओंके लिए निषेध है-सेवन करते हैं। इसका कारण क्या होना चाहिए ? यदि वे अपने वीर्यका नाश न करते हों, यदि ब्रह्मचर्यके भंग करनेकी इच्छा नहो-कामसेवनकी इच्छा न हो तो कदापि वे ऐसी दवाइयोंका और ऊपरसे ऐसे गरिष्ठ पदार्थों का सेवन न करें ? क्या वीर्यकी रक्षा औषधियों से कम शक्ति देनेवाली है ? कदापि नहीं । वीर्यरक्षासे किसी प्रकारके रोगको आनेका अवकाश नहीं मिलता है। इतना ही नहीं परन्तु स्थाई रूपसे रहे हुए श्वास, कास, क्षय और प्रमेहादि रोग भी वीर्यरक्षासे दूर हो जाते हैं । सच तो यह है कि ब्रह्मचारीको न तो औषधोपचार करनेकी आवश्यकता है और न इधर उधर दौड़ धामकरने हीकी । मगर दुःखकी बात तो यह है कि मनुष्य ब्रह्मचर्यकी रक्षाही नहीं करता। इससे हमारे कथनका यह मतलब नहीं है कि हवा, पानी आदि शरीर-रक्षामें कारणभूत नहीं हैं। कारणभूत अवश्य हैं । हमारा अभिप्राय यह है कि रोगी मनुष्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108