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सचमुच ही जो लोग साधुका वेष धारण कर-साधु बनकरब्रह्मचर्यका भंग करते हैं, वे मानो थूके हुएको चाटनेका प्रयत्न करते हैं । जिस वस्तु का एक वार त्याग कर दिया है उसी वस्तुका फिरसे उपयोग करना थूके हुए को चाटना ही है ।
साधुमात्र-चाहे वे किसी दर्शनके या ज्ञातिके हों-के लिए ब्रह्मचर्य पालने के नियम एकसे बताये गये हैं। किसी भी दर्शनवालोंने या पंथवालोंने साधुको विषय-सेवनकी छूट नहीं दी है। हिन्दुधर्ममें कुटीचक, बहुदक, हंस और परमहंस ऐसे चार विभाग हैं; और चारोंके आचार विचारों में भेद हैं; पान्तु उनमें भी ब्रह्मचर्यका भेद तो बिलकुल ही नहीं है। यानी प्रत्येक दर्शनवालोंने ब्रह्मचर्य पालनेकी आज्ञा दी है । कमसेकम यह आज्ञा तो प्रत्येक मनुष्यको पालनी ही चाहिए । जैन साधुओंको अमुक अमुक क्रियाएँ करनेकी सख्त आज्ञा है । जैसे कि-प्रत्येक साधुको लोच करना ही चाहिए आदि; मगर उसमें रोग आदिके कारण छूट भी दी गई है । परन्तु ब्रह्मचर्य में किसीको भी छूट नहीं दी गई है । अर्थात् ऐसी आज्ञा दी गई है कि सब अवस्थाओंमे ब्रह्मचर्यका पालन करना जरूरी है। ___ जो साधु अपना वीर्य किसी प्रकारसे भी नाश नहीं करता है और सर्वथा ब्रह्मचर्यका पालन करता है, उस साधुको मानसिक
और शारीरिक दोनों प्रकारकी उत्तम शक्तियाँ प्राप्त होती है। उसे कभी रोगग्रस्त होकर औषध लेनेकी जरूरत नहीं पड़ती है।
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