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सारे व्यवहारोंका उचित उपभोग करके परमानंद-मोक्षकी प्राप्ति कर सकते हैं।"
उपनिषदके उपर्युक्त अभिप्रायसे यह बात तो स्पष्टतया समझमें आजाती है कि, पुरुषको कमसे कम २५ वर्ष तक और स्त्रीको कमसे कम १६ वर्ष तक अवश्यमेव ब्रह्मचर्य पालना चाहिये ।
उपनिषदके उपर्युक्त अभिप्रायानुसार चलनेवाला मनुष्य अपने शरीरको इतना मजबूत बना लेता है कि, उसे भविष्यके जीवन में नुकसान नहीं उठाना पड़ता है। ब्रह्मचर्य पालनेका यह नियम शरीरशास्त्र के नियमोंसे बिलकुल मिलता हुआ है । शरीरशास्त्रके नियमानुसार कहा जाता है कि-" मनुष्यके शरीरमें सात धातु हैं १ रस, २ रुधिर, ३ मांस, ४ मज्जा, ५ मेद, ६ अस्थि, ७ वीर्य । इन सातों धातुओमें पचीस वर्ष तक वृद्धि होती रहती है और २५ से १० वर्ष तक ये धातु पुष्ट होते हुए यौवनका पोषण करती हैं। इतनी ही उभरमें शरीरका कद बराबर बंधकर तैयार हो जाता है । तत्पश्चात् उसमें क्षीणता आने लगती है; धीरे २ लगभग सौ वर्षमें इस शरीरका नाश हो जाता है।
जैनधर्मशास्त्रोंमें भी उपर्युक्त नियमानुकूल ही नियम बताये • गये हैं। जैनागमोंमें भी जगह २ "जोवणगमणमणुपत्ता" ऐसे वचन लिखे मिलते हैं । अर्थात् जब स्त्री और पुरुष युवास्थाको प्राप्त हो जाय तब ही उनका लग्न करना चाहिए। 'प्रवचनसारोद्धार' में कहा है कि-१६ वर्षकी स्त्रीको २५ वर्षके पुरुषके संयो
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