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अर्थात-साधुको इधर उधर देखना नहीं चाहिए; गीत वगैरहसे निःस्पृह रहना चाहिए; आइनेमें मुँह नहीं देखना चाहिए
और दातून नहीं करना चाहिए अर्थात् शरीरकी शोभाका त्याग करना चाहिए । मनुजी भी मनुस्मृतिके दूसरे अध्यायमें लिखते हैं:
"मात्रा स्वस्त्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् ।
बलवानिन्द्रयग्रामो विद्वांसमपि कर्षति" ॥२१५॥
अर्थात्-माता, बहिन और पुत्रीके साथ भी पुरुषको मनुष्य रहित-एकान्त स्थानमें; एक आसनपर नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियोंका समूह बलवान् होनेसे विद्वानोंको भी विषयकी ओर खींचलेता है।
यह भी समाधिका स्थान या किला नहीं है तो दूसरा क्या है ? इसीतरह भागवतके ग्यारहवें स्कन्धके चौदेहवे अध्यायमें भी कहा है कि:
"स्त्रीणां स्त्रीसंगिनां संगं त्यक्त्वा दूरत आत्मवान् । क्षेमे विविक्त आसीनश्चिन्तयन्मामतन्द्रितः" ॥
अर्थात-आत्महितेच्छु पुरुषोंको चाहिए कि वे स्त्रियोंका और उनके साथियोंका त्याग करके निर्भय-निरुपद्रव स्थानमें रहें और मेरा चिन्तवन करें । इसी स्कन्धमें आगे और कहा है कि
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