Book Title: Bramhacharya Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri, Lilavat
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 32
________________ रहती है। वह ममीनपर बिछानेके लिए भी उपयोगी होता है। इसीतरह रजोहरणादि भी जीवोंकी रक्षाके लिए रक्खे जाते हैं। मगर यदि ऐसी वस्तुओंपर मोह उत्पन्न हो जाता है, तो उनका उचित उपयोग न कर उन्हें सँभालकर रखनेका ही मन होता है। जो साधु शरीरकी शोभाके लिए अधिक टापटीप करते हैं वे सचमुच ही महामोहकी चेष्टा करते हैं । जैसे सिर और पैर, जो शोमाके लिए हैं, वे तो जब पहिलेहीसे नंगे हैं तब फिर वे किसका शृंगार करते है ? उसका शंगार करना व्यर्थकी मोहचेष्टा है । ध्यानपूर्वक विचार करनेसे मालूम होगा कि ऐसी टापटीप अंतरंगमें रहीहुई कामवासना को उत्तेजित करती है। इसलिए साधुओंको चाहिए कि वे ऐसी व्यर्थकी शोभा ओर टापटीपका त्याग करें। समाधिका दशमस्थान यह है-ब्रह्मचारी साधुको शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श इन पाँच प्रकारके कामगुणोंको सदा त्यागना चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं है कि इन्द्रियों के धर्मको सर्वथैव त्यागना चाहिए । बल्के इसका अर्थ यह है कि, उनमें आसक्ति या रागद्वेष नहीं करना चाहिए। जैसे-श्रोत्रेन्द्रियका विषय शब्द है-सुनना । श्रोत्रेन्द्रियकी विद्यमान अवस्थामें शब्द तो अवश्य कानमें पड़ते ही हैं। परन्तु गधे और ऊँटके कठोर शब्दमें एवं वीणाकी सुमधुर झंकारमें द्वेष या राग न कर समानवृत्ति रखना ही कामगुणोंका त्यागना है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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