Book Title: Bramhacharya Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri, Lilavat
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 31
________________ कहते है कि “ यो मितं मुड़े सं बहु भुढे " ( जो परिमित खाता है वह ज्यादा खाता है। इसके सिवा अल्पाहार ब्रह्म. चर्यकी रक्षामें बहुत सहायता देता है। अल्पाहार भी वही करना उचित है जो भिक्षामें निर्दोष रूपसे मिला हो। साधुओंको चाहिए कि वे किसीके यहाँ न्यौतेसे जीमने न जायें और न वे एक ही घरसे गोचरी ही लें । इसतरह नीमने जाने या एक ही घरपर आहारलेनेसे कैसे कैसे नुकसान होते हैं सो जानने के लिए मेरी लिखी हुई गुरुतत्व दिन्दर्शन नामा पुस्तक पढ़ना चाहिए। नवमस्थान यह है कि ब्रह्मचर्य में लीन साधुओंको श्रृंगारके लिए सुंदर वस्त्रादिसे शरीरको सुशोभित नहीं करना चाहिए। शरीरकी शोभा बढ़ानेके लिए दाढी मुँछ वगेराको सँवारनेका प्रयत्न भी नहीं करना चाहिए। साधु होनेके पश्चात् वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरणादि उपकरण क्यों रक्खे जाते हैं ? साधु यदि इसका विचार करते हों तो वे कदापि उनके मोहपाशमें न पड़ें। वस्त्र शीतादि ऋतुमें अग्नि सेवनसे बचनेके लिए, और पात्र भोजनमें जीवजन्तुओंको आनेसे रोकने के लिए और अवसरपर दूसरे साधु ओंकी सेवा करनेके लिए रक्खे जाते हैं । कम्बल भी जीवोंकी रक्षाके और शीतादिके निवारणके लिए हैं। ओस या कुहरा पड़ता हो तो ऐसे समयमें उसे शरीरपर ओढनेकी आवश्यक्ता 2 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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