Book Title: Bramhacharya Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri, Lilavat
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 30
________________ आठवाँ स्थान परिमित आहारसंबंधी है। अर्थात् स्वस्थ मनवाले साधुओंको संयमकी यात्राके लिए समय पर भिक्षासे मिलाहुआ निर्दोष एवं परिमित अन्न व्यवहारके लाना चाहिए; परन्तु विना कारण ज्यादा आहार नहीं करना चाहिए । यहाँ " विना कारण" लिखनेका मतलब यह है कि लम्बा विहार करना हो, अटवीपार करनी हो अथवा बड़ी तपस्या करनी हो तो पेट भरके खालेना चाहिए; इससे आज्ञा भंग नहीं होती, परन्तु यदि कोई भिक्षामें आया हुआ स्वादके कारण-जिहेन्द्रियकी लालसाके वश होकर मात्रासे भी अधिक खाले तो उसमें अवश्य आज्ञाभंगका दोष होता है। इस बातको जरा गहरे उतर कर सोचेंगे तो हमें मालूम हो जायगा, कि जो धर्मशास्त्रकी आज्ञानुसार आहारविहारादि करता है वह प्रायः रोगादि उपद्रवोंसे दूर रहता है । शास्त्रकार कहते हैं किः-- "अद्धमणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दवस्स दो भाए । वाऊपपियारणहा छब्भागं ऊणगं कुज्जा" ॥ अर्थात्-पेटके छ विभाग हैं उनमेसे तीन विभाग शाकसहित भोजनसे भरो, दो भाग पानीसे भरो और एक भाग वायु आने जानेके लिए खाली रहने दो । अर्थात् ऊनोदरता अवश्य रखनी चाहिए । कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचंद्राचार्य भी योगशास्त्र में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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