Book Title: Bramhacharya Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri, Lilavat
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 33
________________ इसी तरहसे पाँचो इन्द्रियोंके विषयोमें भी चाहे वे अच्छे हों या सुरे-राग द्वेष न कर समभाव रखना चाहिए। साधुओंको सदा स्मरणमें रखना चाहिए कि इसतरह कामगुणोंको जीते विना अच्छीतरह ब्रह्मचर्यकी रक्षा नहीं हो सकती है। ___ उक्त समाधिके दशस्थान समस्त दर्शनोंके साधुओंके ध्यानमें रखने योग्य हैं, इतना ही नहीं बल्के जाँच करनेते यह भी ज्ञात होता है, कि शब्दान्तरसे हरेक दर्शनके साधुओंको ऐसे किलेका आश्रय लेनेकी आज्ञा हुई है । देखो दक्षस्मृतिके सातवें अध्यायमें क्या कहा है "ब्रह्मचर्य सदा रक्षेदष्टया रक्षणं पृथक् । स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणम् ।। संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिर्वत्तिरेव च । एतन्मैथुनमष्टाङ्गं प्रवदन्ति मनीषिणः" ॥ ३२ ॥ अर्थात्-मैथुनके आठ प्रकार हैं-स्मरण, क्रीडा, देखना, गुह्यभाषण, संकल्प, अध्यवसाय और क्रियाकी उत्पत्ति (कुचेष्टा)। इस प्रकार मैथुनके आठ प्रकार हैं । इसलिए ब्रह्मचर्य की रक्षा भी मैथुनके आठ प्रकारसे करनी चाहिए। अर्थात्-उपर्युक्त मैथुनके प्रकारों से दूर रहनेहीसे ब्रह्मचर्यकी रक्षा हो सकती है । इसी प्रकार उशनस्मृतिके तृतीय अध्यायमें भी कहा है:-- "अनन्यदर्शी सततं भवेद् गीतादिनिःस्पृहा । ___नादर्श चैव वीक्षेत न चरेद्दन्तधावनम्" ॥ २० ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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