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सच तो यह है कि इसतरहके संबंधवाले स्थानमें साधुओंके ब्रह्मचर्यका शुद्ध रेहना यदि असंभव नहीं है, तो भी दुष्कर अवश्य है । क्योंकि, स्त्रीके हावभाव-चेष्टादि वारंवार दृष्टिगोचर होतेहैं, इससे गाढराग उत्पन्न होनेकी संभावना है । गाढराग उत्पन्न होनेके कारण मनुष्य हितकारी वचनको भूल जाते हैं
और नास्तिक-अनिष्ट वचनोंको ही वे यथार्थ समझने लगजाते हैं । धीरे धीरे उनकी ऐसी स्थिति होजाती है किः
"सत्यं वच्पि हितं वच्मि सारं वच्मि पुनः पुनः ।
अस्मिन्नसारे संसारे सारं सारंगलोचना" ॥
इत्यादि दुष्ट भावनाएँ उनके मनमें उत्पन्न हो जाती हैं और मिथ्यात्वके उदयसे वे अपना चित्त उनकी सेवामें लगा देते हैं। इतना ही नहीं उनके मनमें ऐसी शंकाएँ भी उत्पन्न होने लगती हैं, कि तीर्थकरोंने स्त्रीसेवनमें जो दोष बताए हैं वे ठीक हैं या नहीं ? उनके मनमें ऐसे भी संकल्प-विकल्प होने लगते हैं, कि शुष्क आहार-विहार-भूमिशय्या केशलोचादि कष्टोंका फल प्राप्त होगा या नहीं ? और इसका परिणाम यह होता है, कि वे अपना चित्त स्त्रीसेवनतरफ दौड़ाते हैं। इन संकल्पविकल्पोंके कारण परिणामोंके बिगड़नेका भय रहता है । इसलिए साधुओंको स्त्रियोंके संसर्गवाली जगहसे दूर रहना चाहिए । इसीतरह पशुओंका संसर्गसंबंध भी साधुओंके ब्रह्मचर्यको हानिकर्ता है । क्योंकि पशुओंको ऐमा ज्ञान नहीं है कि यहाँ
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