Book Title: Bramhacharya Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri, Lilavat
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 24
________________ समं च संथवं थीहिं संकहं च अभिक्खणं । बंभचेररओ भिक्खू निचसो परिवज्जए ॥ अंगपचंगसंठाणं चारुल्लविअपेहि। बंभचेररओ थीणं चक्खुगिजं विवज्जए । कुइअं रुह गीअ हसि थणिअदि। बंभचेररओ थोणं सोअगिजं विवज्जए । हासं किड्डु रई दप्पं सहसावत्तासिआणि अ। बंभचेररओ थीणं नाणुचिते कयाइवि ॥ पणिअं भत्तपाणं च खिप्पं मयविवड्ढणं । बंभचेररओ भिक्खू निच्चसो परिवजए । धम्मलद्धं मिश्र काले जतत्थं पणिहाणवं । नाइमत्तं तु भुंजिन्जा बंभचेररओ सया॥ विभूसं परिवजिज्जा सरीरपरिमंडणं । बंभचेररओ भिक्खू सिंगारत्थं न धारए । सद्दे रूवे अ गंधे अरसे फासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे निच्चसो परिवजए" ॥ उपर्युक्त दश गाथाओंमें समाधिक दश स्थान वर्णन किएगये हैं, जिनमें प्रथम समाधिस्थान निवासस्थान है। अर्थात् जो स्थान स्त्री पशु और नपुंसकके संबंधसे रहित हो-ऐसे एकान्त स्थानमें ब्रह्मचर्यरक्षाके इच्छुक साधुओंको रहना चाहिए। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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