Book Title: Bramhacharya Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri, Lilavat
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 23
________________ किले के बाहिर न जानेदें । शास्त्रकारोंने संन्यासिओंको-साधु. ओंको, लकड़ीकी पुतली छूना भी मना किया है । कारण यही है कि वे विषय-वासनाप्रेरक वस्तुओंसे दूर रहें । उनके मनपर उनका जरासा भी असर न हो और वे संपूर्णतया ब्रह्मचर्यकी रक्षा कर सकें । संसारमें ऐसे सैंकड़ों उदाहरण मौजूद हैं-कि स्त्रियोंक सहवाससे कई अखंड ब्रह्मचारियोंने भी अपना सर्वनाश किया है। इसी लिए शास्त्रकार उद्घोषणापूर्वक कहते हैं कि सर्वथा ब्रह्मचर्यके पालनेवाले पुरुषोंको कदापि ऐसी परिस्थितिमें नहीं रहना चाहिए-कि जिसमें ब्रह्मचर्यके भंग होनेका भय हो। ब्रह्मचर्यके दश स्थान । ___ यद्यपि साधु शीलसुगंधसे हमेशा सुगंधित हैं, सत्यरत्नसे धनाढ्य हैं, समभावभूषणसे अलंकृत हैं, निस्पृहतामें मस्त हैं, अस्तेयभावसे अस्तकर्मा हैं और अहिंसाधर्मके पालनेसे अहिंसक हैं, तो भी वे अपने ब्रह्मचर्यव्रतसे स्खलित न होजायँ, इसलिए उत्तराध्ययनसूत्रके सोलहवें अध्ययनमें समाधिके दशस्थान वर्णन किये गये हैं । वे इस तरह हैं: "जं विवित्तमणाइण्णं रहिअं थीजणेण य । बंभचेरस्स रक्खडा आलयं तु निसेवए ॥ मनपल्हाय जणणी कामरागविवड्ढणी । बंभचेररओ भिक्खू थीकहं तु विवज्जए । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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