Book Title: Bramhacharya Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri, Lilavat
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 19
________________ लोही और मलमें तो वह विशेषरूपसे रहता ही है। जिसवक्त इन वस्तुओंका नाश होता है, उसी समय आत्मा भी शरीरसे दूर हो जाता है। उपर्युक्त कथनसे हम यह भलीप्रकार समझ सकते हैं कि आत्मा और वीर्यका घनिष्ठ संबंध है। और इसीलिए वीर्य-क्षयसे यदि आत्मिक बल घट जाय तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । अतः प्रत्येक प्राणीको और खासकर प्रत्येक मनुष्यको सचेत होकर अपने वीर्यकी रक्षा करना अत्यंत आवश्यकीय है । यह बात भी सच है, कि वीर्य हमारे शरीरका राना है । वीर्य केवल शरीरके अमुक भागमें ही नहीं है; परन्तु उसका साम्राज्य शरीरकी प्रत्येक रगमें चोटीसे एडीतक है। चरकसंहितामें चिकित्सास्यानके दूसरे अध्यायमें कहा है कि: "रस इक्षौ यथा दधि सर्पिस्तैलं तिले यथा। सर्वत्रानुगतं देहे शुक्रं संस्पर्शने तथा ॥ तत स्त्रीपुरुषसंयोगे चेष्टासंकल्पपीडनात् ।। शुक्रं प्रच्यवते स्थानान्जलमात् पटादिव ॥" अर्थात्-जिसतरह गन्नेमें रस, दहीमें घी, और तिल्लीमें तैल रहता है उसीतरह वीर्य भी शरीरके प्रत्येक परमाणुमें व्याप्त है। भीगेहुए कपड़े से जैसे पानी गिरता है वैसे ही, वीर्यभी स्त्री-पुरुषके संयोगसे तथा चेष्टा, संकल्पपीडनादिसे अपने स्थानसे नीचे गिरता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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