Book Title: Bramhacharya Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri, Lilavat
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 20
________________ हम देखते हैं कि गन्नेको कोल्हमें पीलकर बाहिर निकालनेके बाद उसकी सारी सुंदरता नष्ट हो जाती है, और उसमें सिर्फ दूंचे बाकी रह जाते हैं । दहीका सत्त्व-घृत चिकाल लेनेसे फिर मात्र छाछरूप पानी ही रह जाता है; तिलोंमेंसे तैल निकाल लेने के बाद खलमात्र ही रह जाता है । इसीतरह शरीरके सत्त्वस्वरूप-शरीरके रानारूप-वीर्यका जब क्षय हो जाता है तब हमारा शरीर सत्त्व-विहीन धौंकनीकासा मिट्टीका पुतला मात्र रहनाता है। विशेष क्या ? शक्ति-विहीन शरीरमेंसे प्राणपखेरू उड जायँ तो भी कोई आश्चर्य नहीं है । एक मनुष्य सिंहके मुताबिक गर्जना करता रहता है, दूसरा विचारा इतना कमजोर होता है कि अपना बोलाहुआ आप ही कठिनतासे सुन सकना है । एक मनुष्यमें इतनी शक्ति है, कि वह बीस बीस पचीस पचीस मन बोझा दमभरमें उठाकर फेंक देता है, और दूसरेमें अपने मुँहपर बैठीहुई मक्खीको उड़ा देने जितनी भी शक्ति नहीं है । एक मनुष्यकी मस्तिष्कशक्ति इतनी तीव्र होती. है, कि वह चन्टेभरमें बीस, पचीस, पचास या सौ श्लोक बड़े मजेसे कंठस्थ कर सकता है और दूसरा इतना हीनशक्ति होता है, कि दिनभर घोख घोखकर भी बड़ी मुश्किलसे एकाध श्लोक याद कर सकता है । इन सबका मुख्य कारण क्या है ? केवल वीर्यरक्षाका-सद्भाव और दुर्भाव । जो जितने अंशमें वीर्यकी रक्षा करता है उसकी बुद्धि उतने ही अंशोंमें तीव्र होती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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