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शब्दार्थ :- नमुक्कारेण नमस्कार दारा, जहला-जघन्य, चिइ-वंदण =चैत्यवंदन, मज्झ-मध्य, दंड-दंडक, थुइ-स्तुति के, जुअला =युगल द्वारा, पणदंडा-पांचदंडक, थुइचउळग-चार स्तुति,थय-स्तवन,पणिहाणेहिं प्रणिधान सूत्र दारा, उक्कोसा = उत्कृष्ट,||२३|| |.. गाथार्थ :-नमस्कार दारा जघन्य, दंडक और स्तुति युगल दारा मध्यम, पांच दंडक, चारस्तुति, स्तवन और प्रणिधान द्वारा उत्कृष्ट चैत्यवंदन होता है।
विशेषार्थ :-यहाँ "नमस्कार दारा"अर्थात् १-अंजलिबद्ध प्रणाम दारा, २नमो जिणाणं इत्यादि एक पदरूप रूप नमस्कार - द्वारा, ३ एक श्लोक द्वारा १०८ तक,४अधिक श्लोंको दारा, और ५-एक नमुत्थुणं रूप नमस्कार दारा,इस प्रकार पांचो ही तरीके से जघन्य चैत्यवंदना होती है। . . -मध्यम चैत्यवंदन
दंडक अर्थात् नमुत्युणं दंडक के साथ मुख्यता से अरिहंत चेहआणं कि जो पांच दंडक में से एक चैत्यस्तव दंडक़ है ,उसे और अनत्य बोलकर एक नवकार का काउसग्ग पारकर बोली जानेवाली एक स्तुति ,इन दोनो के युगल से मध्यम चैत्यवंदना होती है। | अथवा "जुअला " पद से दंड और स्तुति , इन दोनो को साथ में जोडने का अर्थ होता है कि "दो दंडक और दो स्तुति द्वारा मध्यम चैत्यवंदना होती है" इसमें शक्रस्तव
और चैत्यस्तव ये दो दंडक मुख्यता से बोलना और अध्रुव और ध्रुव ये दो प्रकार की स्तुतियां जानना। उसमें प्रथम भिन्न भिन्न तीर्थंकरों की या चैत्य विषय की स्तुति अध्रुव स्तुति, और बाद में “लोगस्स उज्जोयगरे” इत्यादि २४ तीर्थंकरों के नाम की स्तवना वाली ध्रुव स्तुति कहलाती है । इस प्रकार दो दण्डक और दो स्तुति द्वारा मध्यम चैत्यवंदना समझना । लेकिन प्रथम स्तुति के बाद मात्र लोगस्स बोलने की प्रथा वर्तमान में प्रचलित नहीं है।
अथवा दंड अर्थात् नमुत्युणं अरिहंतचेआणं, लोगग्स पुक्खरवरदीवड्ढे और सिवाणं इन पांचो को एक दंडक तथा सिद्धांत की संज्ञा के आधार से चार स्तुति वाले युगल में दो विभाग होते है। प्रथम तीन स्तुतिओं के समूह की एक वंदना स्तुति कही जाती है। और देवताओं के स्मरण के रूप में चतुर्थ स्तुति अनुशास्ति स्तुति कही जाती है । इस प्रकार
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