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..विशेष हेतु संपदा:- ओघहेतु का विस्तार बाद के चार पदों में करने में आया है । इसलिए इसे विशेष हेतु संपदा कही जाती है ।
४.उपयोग हेतु संपदा :- जिसकी स्तुति की गयी है , उसकी लोगा' को आवश्यकता क्या है ? मात्र दृष्टिराग के कारण स्तुति की गयी है या अरिहंत परमात्मा जगत के लिए उपयोगी है ? इसे समझाने के लिए पांच पदों की उपयोगी हेतु संपदा कहलाती है ।
त तुसंपदा :-स्तुति करने योग्य जगत में उपयोगी है। लेकिन किस तरह से उपयोगी होते है ? उपयोगी होने में क्या क्या कारण है। इसलिए उपयोग के हेतुरूप तद्धेतुसंपदा कही गयी है।
६. सविशेषोपयोग संपदा:- सामान्य उपयोग मात्र से किसी व्यक्ति की परम स्तोतव्यता नहीं आ सकती। लेकिन मुख्य उपयोग,विशेष उपयोग, या असाधारण उपयोग जिसका हो, वही असाधारण स्तुति का विषय बन सकता है,इसलिए धम्मदयाणं विगैरे पांच पदों से सविशेषोपयोग संपदा कही गयी है ।
७.स्वरूप संपदा :-स्तोत्तव्य अरिहंत परमात्मा का दो पदों से असाधारण व्यक्तित्व वाला स्वरूप दर्शाया गया है । जिससे यह स्वरूप संपदा कहलाती है।
८. निजसम- फलद संपदा या स्वतुल्य.पर.फल.कर्तुत्व संपदा:-यदि स्तुति करने का फल न मीले, तो स्तुति करना व्यर्थ है। स्तुति करना आवश्यक इसलिए है कि स्तोतव्यो स्वयं के समान हमको बना सकते है।ये दर्शाने के लिए निजसम-फलद-संपदा कही गयी है, जिसका दूसरा नाम स्वतुल्य-पर-फल-कर्तुत्व संपदा है ।यदि स्तोतव्यो अपने समान दूसरों को नही बना सकते, फिर तो स्तुति करने का क्या प्रयोजन हो सकता है ।
१. मोक्ष संपदा :-अरिहंत परमात्मा ने क्या फल प्राप्त किया है ? परमात्मा ने मोक्षरूपी फल प्राप्त किया है, इसलिए परमात्मा मोक्षरूपी फल अर्पण करने में समर्थ है । अर्थात् अरिहंत परमात्माओं के प्रयास का और हमारे प्रयास का भी अंतिम फल तो.मोक्ष ही है। दोनों का ध्येय एक ही है। ये दर्शाने के लिए मोक्ष संपदा कही गयी है।
अंतिम दो संपदाएँ प्रथम की संपदाओं के साथ उपसंहार रूपमें कुछ सीधा संबंध भी दर्शाती है। .
संपदाओं की इस व्यवस्था से ३३ पदों के नमुत्थुणं रूप महास्तुति रूप सूत्र की असाधारण व्यवस्था दर्शायी है। विशेषण भी कैसे हेतु गर्भित और एक संदर्भरचना में जितने अंग चाहिये, वैसे प्रत्येक अंग के साथ उनमें संकलित हो गये है । अधिक सूक्ष्मता से विचार करने पर संपदा के प्रत्येक पदमें भी सविशेष हेतु रखे गये है ।इसलिए असमस्त पदों को रखकर के अलग अलग विशेषण दीये है. । ललित विस्तरा वृति में इस को श्रीहरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज ने खूब उजागर किया है ।
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