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४. परिपिंडित दोष :- एकत्रित सर्व आचार्यो को अलग वंदना नही करना । एक ही वंदना से सर्व को वंदन करना अथवा आवर्तो का और सूत्राक्षरों का यथायोग्य भिन्न उच्चार न कर संलग्न उच्चार कर वंदन करना । या 'कुक्षि ऊपर दोनो हाथ स्थापन करने से पिंडित (संलग्न) बने हुए हाथ-पाँव पूर्वक वंदन करना उसे परिपिंडित दोष कहते है ।
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५. टोलगति दोष:- टोल तीड़ की तरह वंदन करते समय पीछे हटना और आगे बढ़ना । इस प्रकार आगे पीछे झंप करते ( कूदते ) हुए वंदन करना उसे
६. अंकुश दोष:- अंकुश द्वारा जिसप्रकार हाथी को यथा स्थान ले जाया जाता हैं। या बैठाया जाता है | वैसे ही गुरु को वंदनार्थे हाथ अथवा कपड़ा पकड़कर यथा स्थानपर लाकर या बैठाकर वंदन करना । अथवा अंकुश की तरह रजोहरण को हाथ में पकड़ कर वंदन करना। अन्य आचार्य कहते है कि- 'जिस प्रकार अंकुश द्वारा हस्ति का शीर्ष ऊंचे नीचे किया जाता है वैसेही वंदन के समय मस्तक ऊंचे-नीचे करना । इस प्रकार 'तीन अर्थ
समजना ।
७. कच्छपरिंगित दोष:- कच्छप = कछुआ, कच्छुए की तरह रिंगे अथवा अभिमुख (सन्मुख) और पश्चातमुख किंचित शरीर का चलायमान करते हुए वंदन करे । अर्थात् खड़े होकर 'तित्तिसन्नयराए' इत्यादि वंदनाक्षर बोलते समय, तथा बैठकर 'अहो काय' इत्यादि अक्षर बोलते समय शरीर को गुरु सन्मुख और स्वतरफ खड़े खड़े या बैठे बैठे हिलाया करे उसे कच्छपरिंगित दोष कहते है।
८. मत्स्योदवृत्त दोष:- मछली जल में जिस प्रकार झंप मारती हुई ( उछलकर) ऊपर आती है और शरीर को उल्टा (पलटकर) जल में प्रवेश करती है, वैसे ही शिष्य वंदन के. 'समय शिघ्र उठे, बैठे उसे मत्स्योदवृत्त अथवा मत्स्योदधृत दोष कहा जाता है। अथवा जिस ..प्रकार मछली (उछलकर) पानी में प्रवेश करते समय शरीर को घुमाती (पलटती) है। वैसे ही एक आचार्य से दूसरे आचार्य को वंदना करते समय उसी स्थान से जयणा विना शरीर
११) ये अर्थ धर्म संग्रह वृत्ति के आधार से लिखा है ।
२) दूसरा अर्थ आव० वृत्ति तथा भाष्य चूर्णि मे भी दिया गया है। फिरभी प्रव० सारो वृत्ति में ये दूसरा व अर्थ 'सूत्रानुसार' नही कहा । अतः तच्वं बहुश्रुलगम्य 'कहा है। धर्म सं वृत्ति में तीनो ही अर्थ कहे
गये है।
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