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- अवतरण: - इस अंतिम गाथा में गुरुवंदन भाष्य की समाप्ति, एवं भाष्यकर्ता श्री देवेन्द्रसूरि अपने मतिदोष द्वारा अज्ञात दशा में हुई भूल के लिए लघुता दशति हुए श्री . गीतार्थो को भूल सुधारने के लिए विज्ञप्ति करते हैं।
अप्पमइ भब्व बोहत्य, भासियं विवरियं च जमिह मए । तं सोहंत गियत्था, अणभिनिवेसी अमच्छरिणो ॥ ४१॥
शब्दार्थ :- अप्पमइ= अल्पमतिवंत, भव्व भव्य जीवको, बोहत्य-बोध करवाने के लिए, भासियं-कहा, भाखा , विवरिय-विपरित, च=और, जं-जो कुछ, इह-यहाँ, उसमें, मए में, मेरे द्वारा, सोहंतु-शुद्ध करो, गियत्था हे गीतार्थों।, अणभिनिवेसी आग्रहरहित, अमच्छरिणो मत्सर (=इर्ष्या) रहित
गाथार्थ:- अल्पमतिवंत भव्यजीवों को बोध करवाने के लिए (ये गुरुवंदन भाष्य नाम का प्रकरण मैने (देवेन्द्रसूरि ने) कहा है। लेकिन उसमें मेरे द्वारा कुछ भी विपरीत कहा गया हो (याने मेरे अनजानपनमें जो कुछ भूलचूक हुई हो) उस भूलचूक का आग्रहरहित और इारहित ऐसे हे गीतार्थ मुनिओ ! आप शुध्ध करना । भावार्थ:- गाथार्थवत् सुगम है।
॥ इति धर्मसंग्रह वृत्ति ॥
******* परार्थंकरण
हितोपटश
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