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भावार्थ :- यहाँ कारण के विषय में जानना है कि जो मुनि योगवहन करते हैं, परन्तु विशेष सामर्थ्य न हो या व लम्बे समय तक नीवि की तपश्चर्या चलती हो, अथवा जीवन पर्यन्त विगई का त्याग किया हो, उग्र तपस्वी हो, अथवा नीवि का तप करते हुए ग्लानमुनि, गुरु तथा अन्य मुनिओं की वैयावृत्य (कायिक सेवा) करने वाले हों, और सर्वथा नीरस द्रव्यों से अशक्ति आजाने के कारण वैयावृत्यादि में व्याघात होता हो, वैसे मुनिओं को गुरु की आज्ञा से नीवि में ये तीनो ही प्रकार से (नीवियाने, उत्तम द्रव्य, संसृष्ट द्रव्य) द्रव्य लेना कल्पता है। लेकिन जिह्वा की लोलुपता से इन द्रव्य को नीवियाते होते हुए भी लेना कल्पता नही है। कारण कि इन द्रव्यों को विकृति रहित कहें है। फिर भी सुस्वाद रहित तो नही कहे, और सर्वथा विकृति रहित भी नहीं हैं।
तपश्चर्या तो स्वादिष्ट आहार के त्याग से ही सार्थक होती है । तथा तपश्चर्या करके स्वादिष्ट आहार करना ये तपश्चर्या का लक्षण नही है। तपश्चर्या करने वाली आत्मा तो स्वादिष्ट आहार को त्याग करने वाला होता है, और तपस्वी का लक्ष्य तो सरस आहार को त्याग करने के तरफ होता है। फिर तथा प्रकार के तप में स्वादिष्ट आहार को स्थान कैसे हो सकता है?
तथा इन विगईयों के नीवियाता बनाने पर भी विगई या सर्वथा विकृतिरहित बन ही जाती है, ऐसी बात नही, जिसे आगे की गाथा में दर्शाया गया है ।
अवतरण :- पूर्व कथित तीनो ही प्रकार के द्रव्य निर्विकृतिक ( विकृतिरहित ) ने पर भी नीव के प्रत्याख्यान में क्यों नही कल्पते ? उसका कारण श्री निशिथ भाष्य की गाथा द्वारा कहा जारहा हैं ।
विग विगई भीओ, विगहगयं जो उ भुंजए सा । विगई विगइ सहावा, विगई विगई बाला नेइ ॥ ४० ॥
'अन्वय :- विगईभीओ जो साहू विगई उ विगइगयं भुंजए । विगई विगइसहावा विगइ विगई बला नेइ ||४०|| (तं साहूं इति शेषः ) ३
१.२. इस गाथा में 'विगई' शब्द का प्रयोग अधिक बार हुआ है, जिससे शब्द व गाथा अर्थ स्पष्ट समज में आजावे इसलिए सर्व शब्दों के अर्थ के साथ का अन्वय भी विया गया है।
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३. अर्थ के समय तं साहु ये पद अध्याहार से ग्रहण करना
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