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३. विनयशुध्यि :- गुरु को वंदन कर प्रत्याख्यान लेना उसे विनयशुध्धि कहते है।
४. अनुभाषणशुध्धि :- गुरु जब प्रत्याख्यान उच्चराते हों तब स्वयं भी साथमें मंद स्वर से प्रत्याख्यान के आलापक बोले उसे अणुभाषणशुध्धि कहते हैं। (अथवा गुरु पच्चक्खाइ शब्द बोले तब पच्चक्खामि और वोसिरइ कहे तब वोसिरामि बोलना उसे अनुभाषणशुध्धि कहते हैं।
१.अनुपालनशुध्धि-विषम संकट अवस्था में भी ग्रहण किये हुए प्रत्याख्यान को सम्यग रीत से पालन करना उसका न भंग करना, उसे अनुपालन शुध्धि कहते हैं
६. भाव शुध्धि - इस लोक में चक्रवर्ति आदि के सुःखकीऔर परलोक में इन्द्रादि के सुख की अभिलाषा रहित नियाणा रहित । 'राग द्वेष रहित पच्चवखाण करना उसे | भाव शुध्धि कहते हैं।
२. अवस्था:- याने साधु के विषय में जिनकल्प स्थविरकल्प परिहारकल्प यथालंदकल्प बारह प्रतिमाधारी - इत्यादि, तथा ग्लानादि अवस्था, और श्रावक के विषयमें प्रतिमाधर, प्रतिमारहित, नियतव्रती और अनियतव्रती - इत्यादि
३. काल- याने सुकाल - दुष्काल - वर्षाकाल - शेषकाल इत्यादि 'नमुक्कार सहियं प्रत्या० का ग्रहण सूर्योदय से पूर्व और पूर्ण काल सूर्योदय से एक मुहूत बादमें, इस प्रकार प्रत्येक प्रत्याख्यान का यथासंभव काल समजना।
इन तीन विषयों को अवचूरि में संक्षेप में इस प्रकार कहा है। अथवा इति यत्साधुश्रावकविषयं मूलोत्तरगुण प्रत्याख्यानं यत्र जिन कल्पादौ यत्र सुभिक्षदुर्भिक्षादौ काले | च तथा श्रीसर्वहरुक्तं तत्तत्र तथा श्रध्धत्ते इति श्रध्धान शुध्धिा।।
(किसी प्रिय वस्तु का विरह होने पर उसे पुनः प्राप्त करने के लिए या गुरु को व लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए, या चमत्कारिक शक्तियाँ प्राप्त करने के हेतु से जो प्रत्याख्यान तपश्चर्या की जाती है उसे रागसहित प्रत्याख्यान कहाजाता है। तथा जो वस्तु भाती नहीं है, अथवा रुचिकर नहीं है उसका त्याग करना, अथवा दुश्मन को संताप उपजाने के लिए तेजोलेश्यादि लब्धि प्रापृ करने के लिए जो प्रत्याख्यान लिया जाता है उसे द्वेष सहित प्रत्याख्यान कहते है।
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