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इस प्रकार अशोकवृक्ष,सुरपुष्पवृष्टि,दिव्यध्वनि, चामर, सिंहासन , भामंडल, दुंदुभि और छात्रय ये आठ प्रातिहार्य है तथा नीचे दो चरणों के बीच आगे धर्मचक्र चल रहा है नवग्रह और दशदिग्पाल विगेरे प्रभुजी की सेवा कर रहे है। ये सारी घटनाएं परिकर मे होती है। श्री तारंगा तीर्थ में भव्य परिकर युक्त श्री अजितनाथ परमात्मा की भव्य प्रतिमा है। उस भव्य परिकर को देखेंगे तो सारी हकीकत स्पष्ट समझ मे आ जायेगी।
इस प्रकार स्नान करवाने वाले देवों को देखकर परमात्मा की जन्मावस्था का चिंत्तन, मालाधारी को देखकर राज्यावस्था का चिंतन। प्रभुजी के मस्तक पर तथा दाढीमूछके केश देखकर मुनि अवस्था का चिन्तन, परमात्मा दीक्षा लेते समय स्वहस्त से पंच मुष्ठि लोच करते है। फिर भी जो केश बाकी रह जाते है वो बढते नहीं है । अवस्थित रहते है
और प्रतिमाजी के ऊपर केश तथा शिखा(चोटी) का आकार होता है। वो अवस्थित केश की अपेक्षा से होता है जिससे केश वृद्धि के अभाव रूप केश का अभाव यहां चिंतन करना है ।
आठ प्रातिहार्यो को देखकर परमात्मा की तीर्थंकर अवस्था का चिंतन करना ।
पर्यंकासन और कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रभुजी की प्रतिमा होती है उसे देखकर परमात्मा की सिध्धअवस्था का चिंतन करना।
दाहिनी जंघा और पिंडी के बीच बांयाँ पाँव स्थापन किया जाय, बाँयी जंघा और पिंडी के बीच दाहिना पाँव स्थापन किया जाय, नाभि कमल के पास में दोनों हाथ सीधे एक दूसरे पर स्थापन किये हो वो पर्यंकासन अवस्था कहलाती है कितनेक प्रतिमाजी काउस्सग्ग मुद्रा में भी होते हैं इन दोनों अवस्थाओं को देखकर परमात्मा मोक्ष में गये हैं, अत: सिध्धावस्था का चिन्तन करना।
जिसप्रकार तीर्थंकर परमात्मा पूज्यतम है वैसे ही उनकी और उनके जीवन पर आधारित अनेक हकीकतें और अवस्थाऐं भी नय -निक्षेप की अपेक्षा से पूज्यतम है। और वह सहेतुक और नियमानुसार है । जो तीर्थंकर परमात्मा की प्रतिमाओं की अवस्था भेद की अपेक्षा से अलग अलग पूजा विधि स्वीकार नहीं करते वो नय निक्षेप को समझते नहीं है, अर्थात् वो जैन तत्त्वज्ञान का अपमान कर रहे है, ऐसा कह सकते हैं । याने उत्सूत्रभाषी और असत्यभाषी कहे जाते हैं । छोटे बालक का पालन पोषण करने वाली माँ जब उसे खिलाती पिलाती हो तब ही पूज्य है और खाना बनाती हो या पानी भर रही हो तब पूज्य नहीं है। ऐसी बात नहीं है, वो सर्व अवस्था में समान भाव से पूज्य है इसी प्रकार जिनेश्वर परमात्माओं के नजदीक और दूर के द्रव्य निक्षेप भी पूज्य है, इसलिये च्यवन से लेकर सिध्धावस्था तक की अवस्थाएँ भी पूज्य है। प्रतिमा की रचना में सर्व अवस्थाओं का विधान नहीं हो सकता ।
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