________________
इसी तरह भोजन करते समय ऐसा कोई व्यक्ति आजाय कि जिसकी द्रष्टि भोजनपर पड़ने से भोजन हानिकारक (भोजन न पचे, या अवगुण करे) बनजाता हो, तो ऐसी द्रष्टिवाले व्यक्ति से बचने के लिए गृहस्थ वहाँ से खड़े होकर अन्यत्र जाकर भोजन करे तो भी इस आगार के कारण पच्च० का भंग नही होता है।
तथा सागारिक के उपलक्षण से बन्दि (याने भाट, चारण आदि) सर्प - अग्निभयजल से भय - गृह के गिरने आदि से - इत्यादि अनेक आगार इस सागारिआगारके अन्तर्गत
समजना ।
अवतरणः - इस गाथा में ९-१०-११-१२ वे आगार का अर्थ कहा जा रहा है ।
आउंटण - मंगाणं, गुरुपाहुणसाहु गुरु अष्भुडाणं । परिठावण विहिगहिए, जईण पावरणि कडिपट्टो ॥ २६ ॥
शब्दार्थ :- आउंटण = आकुंचन प्रसारण (छोटे बड़े करना ), अंगाणं = अंगो का, हाथ पैर का, विहिगहिय विधिपूर्वक ग्रहण करने पर भी, जईण यतिको, मुनि को पावरणि= प्रावरण के (वस्त्र के) प्रत्याख्यान में, कडिपट्टो कटिवस्त्र का चोलपट्टे
=
का आगार
=
=
गाथार्थ :- अंग को संकुचित प्रसारण करना वह "आउटणपसारेण” आगार, गुरु या प्राहुणा साधु (वडीलसाधु) के आनेपर खड़े होना, वह "गुरु अब्भुहाणेण” आगार, विधिपूर्वक ग्रहण करने पर शेष परठवने योग्य आहार को (गुरु आज्ञासे) लेना (वापरना) वह "पारिहा वणियागारेण” आगार यति को ही होता है। तथा वस्त्र के प्रत्याख्यान में " चोलपट्टागारेण” आगार भी यति को ही होता है ।
विशेषार्थ : :- ९. आउंटणपसारेणं :- एकाशन में हाथ पाँव विगेरे अंगो को स्थिर कर बैठना लम्बे समय तक संभव न हो और हाथ पाँव विगेरे अवयवों को संकुचित करे या लंबा फिर भी एकाशन का भंग न हो उसे आउंटण पसारेण आगार कहा जाता है ।
171
१. तथा इस प्रकार की द्रष्टि के अलावा अन्य गृहस्थ भोजन के समय घरपर आवे तो विवेक पूर्वक उसको भोजन के लिए कहना चाहिये और भोजन करवाना चाहिये । द्वार पे याचक आया हो तो यथाशक्ति दान दें, लेकिन सर्वथा निराश कर उसे न लौटायें, कारण कि गृहस्थ का दान धर्म है । इसीलिए भोजन के समय द्वार खुले रखने को कहा है। कोई आजायेगा इस भय से द्वार बंद कर भोजन करना कृपणता की निशानी और एकलपेटापणा गिना जाता है।