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" शब्दार्थः- उहि-ऊंटड़ी, अयसि-अलसि, लह-कुसुम्भ (एक प्रकार का घास), | द्रव-नरम, प्रवाही, पिंड-कठीन, तलियं तला हुआ......
.. गाथार्थः- दूध घी दही-तेल-गुइ-और पकवान्न ये ६ भक्ष्य विगइ है । दूध ५ प्रकार का है, गाय-भैंस-बकरी-ऊंटड़ी और भेड़ का, विगई मे गिना जाता है । तथा चार प्रकार का घी (घृत) तथा दहि ऊंटडी के विना जानना । तथा तिल-सरसव-अलसी-और कुसुंबी के घास का तेल, ये चार प्रकार का तेल (विगई रुप) है । द्रवगुड़ और पिंडगुड़ दो प्रकार का गुड़ विगइ रुप है । और तेल व घी में तला हुआ पकवान दो प्रकार का विगई रुप है | ॥३१॥
भावार्थ:- दूध के पाँच प्रकार है, लेकिन घी और दहि चार प्रकार का ही है, कारण किं ऊंटड़ी के दूध का घी व दहि नहीं बनता है । तथा स्त्री विगेरे के दूध को विगई तरीके नही | गिना है। ऊपर चार प्रकार के तेल के अलावा अनेक प्रकार का तेल भी है, जैसे कि एरंडि
का, सोयाबिन का,मुंगफली का, कपासिये का, इत्यादि लेकिन इन्हे विगई तरीके नहीं माना है, फिर भी तेल को लेपकृत 'मानना चाहिये । (जिससे आयंबिल में उसका भी त्याग होता है । तथा विगइ रहित तेल के लेप से लेवालेवेणं आगार रखाना चाहिये । ) इस प्रकार गाथा में ६ भक्ष्य विगइ के २१ उत्तर भेदों का स्वरुप दर्शाया गया है । यहाँ ग्रंथकार प्रसंगवत् अभक्ष्य विगई के उत्तर भेदों से पूर्व छ विगई के ३० नीवियाते याने विगई | अविगई होती है उसका स्वरुप दर्शा रहे हैं।
.. अवतरणः- ६ भक्ष्य विगई विकृति स्वभाववाली है । जिस रीत से | विकृत स्वभाव अविकृत स्वभाववाला बनता है, उसे निर्विकृत (नीवियाता) कहाजाता है। इस गाथा में दूध विगई के पूनीवियाते दर्शाये गये हैं ।
पयसाडि-खीर-पेया-बलेहि-दुध्धष्टि दुध्धविगइ गया । बक्ख बहु अप्पतंदुल तच्चुनंबिल सहियदुध्धे ||३२|
शब्दार्थ:- पयसाडिम्पयःशाटी, विगईगया विकृतिगत, नीवियाता, | दक्ख द्राक्ष, तच्चुल-उसका (तंदुल) चूर्ण, अंबिल-खटाई,
१. शेषतैलानि तु न विकृतयः लेपकृतानि तु भवन्ति (इति० धर्म० सं० वृत्ति० वचनात्) तथा इसी भाष्य की ३८ वीं गाथा में इन तैलों को लेपकृत गिना है ।
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-NEERED
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