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अवतरणः- इस गाथा में चार प्रकार के आहारमेंसे मुनि व श्रावकको किस प्रत्याख्यान में कितने आहार का त्याग करना चाहिये ? उसका नियम दर्शाते हैं ।
चउहाहारं तु नमो रतिपि मुणीण सेस तिह चउहा | निसि पोरिसिपुरिमेगा, सणाइ सड्ढाण दुतिचउहा ||१२||
शब्दार्थ:- नमो = नमुक्कारसहियं नवकारसी, रति = रात्रि (के पच्चखाण) तिह = तिविहार, सड्ढाण = श्रावकों को, दुहा = दुविहार, ति (हा)= तिविहार, ___ गाथार्थ :- मुनि को नवकारसी का तथा रात्रिका (दिवस चरिम) प्रत्याख्यान
चउविहार रूप ही होता है । और शेष (पोरिसी आदि प्रत्याख्यान तिविहार चउविहार रूप | दो प्रकार के होते हैं । तथा श्रावक को तो रात्रि का (दिवस चरिम) और पोरिसी, पुरिमड्ढ, तथा एकाशनादि प्रत्याख्यान दुविहार, तिविहार, चउविहार रुप तीन प्रकार होते हैं । (नवकारसी का प्रत्याख्यान तो श्रावक को भी चउविहार वाला ही होता है । कारण कि नवकार सी पच्च0 तो गत रात्रि के चउविहार प्रत्याख्यान को कुछ अधिक करने के रुप में कहा है । ॥१२॥ निखज्जाहारेणं, निज्जीवेण परित्तमीसेणं ।
अत्ताणुसंधण परा सुसावगा एरिसा हुंति ||१||(श्राद्ध० वृत्तिः)
अर्थ :- निरवघ (=निर्दोष) आहार से निर्जीव आहार से और प्रत्येक मिश्र (साधारण वनस्पति रहित) आहार से (आत्मानुसंधान में तत्पर अर्थात्) आत्मगुण प्राप्त करने में तत्पर ऐसे सुश्रावक ही ऐसे आहार द्वारा जीवन निर्वाह करते हैं । ___ इस प्रकार शोचने पर तो नवकारसी का प्रत्याख्यान करने (छूटे) वाले श्रावक को भी अचित्त आहार होना चाहिये, फिर एकाशनादि व्रतों में विना कारण श्रावक को तिविहार में सचित जल और दुविहार में सचित स्वादि म आदि क्यों वापरना ?
१. उपवासाचाम्लनिविकृतिकानि प्रायस्त्रिचतुर्विधाहाराणि अपवादात्तु निर्विकुतिकादि पौरुष्यादि च द्विविधाहारमपि स्यात् (इतिश्राध्ध विधि वचनात्) लेकिन दुविहार करना ये । व्यवहार मार्ग नहीं है ।))
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