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शब्दार्थः- गाथार्थ अनुसार सुगम है ।
गाथार्थः- पोरिसी और सार्धपोरिसी के, अवइंढ और पुरिमड्ढ के, तथा (दुभत्त =) बिआसने व एकाशने के, (निन्विगई) नीवि और विगई 'के, अंगुहसहियं मुहिसहियं और गंठि सहियं आदि ८ संकेत प्रत्याख्यान तथा सचित्त द्रव्यादिक का (=द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से) अभिग्रह, तथा देसावगासिक (इन दोनों के) परस्पर समान आगार हैं। अर्थात् आगारों की संख्या और आगारों के नाम समान है। ॥२३॥
अवतरण:- इस गाथा में प्रथम चार आगारों का अर्थ दर्शाया गया है। विस्सरणमणाभोगो, सहसागारो सयं मुहपवेसो।। पच्छनकाल मेहाई, दिसिविवज्जासु दिसिमोहो ॥२४॥
शब्दार्थ:-विस्सरणं = विस्मरण भूलजाना अणाभोगो अनाभोग, आगार सयं = स्वयं, स्व इच्छासे, अकस्मात मेहाई = वर्षा विगरे (से) विवज्जासु = विपर्यास में, दिशा के फेरफार से
गाथार्थ :- भूलजाना वह अनाभोग, आहार के पदार्थ अकस्मात मुख में प्रवेश करे, वह सहसागार, वर्षा विगेरे से (समय मालुम न हो) वह पच्छन्नकाल, और दिशाओं का फेरफार समजने से दिशामोह आगार समजना चाहिये ।
भावार्थ:-अनत्यण भोगेणं आगार :- इस आगार में अन्नत्थ और अनाभोग दो शब्द हैं । अन्नत्थ = अन्यत्र (= विना अथवा छोड़कर)और अनाभोग = भूलजाना (ऐसा अर्थ गाथा में ही दर्शाया है) अर्थात् जिस प्रत्याख्यान का व्रत लिया है उसे मतिदोष या भ्रान्ति से भूल गये हो, और त्याग किये हुए पदार्थ भूल से खायें हो, या मुख में डाले हो, तो उसे अनाभोग कहा जाता है । प्रत्याख्यान ग्रहण करते समय ऐसे अनाभोग को छोड़कर प्रत्याख्यान करता है । इस प्रकार प्रत्याख्यान के समय ऐसी छूट प्रारंभ से ही जताने के लिए अन्नत्यणा भोगेणं आगार उच्चरा जाता है। जिससे कदाच ऐसी भूल हो भी जाये तो प्रत्याख्यान का भंग नही होता है।
इस आगार के लिए एवं अन्य आगारों के लिए भी इतना ध्यान अवश्य रखना है कि भूलसे या अन्य किसी कारण से त्याग की हुई वस्तु खाइ हो, या मुख में डाली हो तो जैसे ही याद आवे कि तुरंत खाना बंद करके शेष वस्तु को मुख से बाहर निकालकर मुख शुद्धि अवश्य कर लेनी चाहिये लेकिन गलना नहीं । फिरसे ऐसी भूल न हो, और परिणाम भी मलीन न हो इसके लिए गुरु से यथायोग्य प्रायश्चित लेना चाहिये ये शुद्ध व्यवहार है।
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