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१०) चार छोभ वंदन : पश्चात् ४ खमासमण पूर्वक ४ छोभ वंदन ("भगवानहं इत्यादि) बोलना। ११) देवसिक प्रायश्चित्तका काउस्सग्ग :- पश्चात् आदेश मांगकर चार लोगस्स का काउस्सग्ग करना। १२) स्वाध्याय के दो आदेश - पश्चात् दो खमासमण पूर्वक दो आदेश (इच्छा० सज्झाय संदिसहार्बु, इच्छा० सज्झाय करु) मांग कर सज्झाय (स्वाध्याय) करना ।
॥ इति २१ वा दार ॥ ॥ इति गुरु वंदन २२ दाराणि समाप्तानि ||
*** अवतरण :- इस प्रकरण का उपसंहार एवं पूर्वोक्त विधि से गुरुवंदन करने वाले को जो महान् लाभ प्राप्त होता है वो इस गाथा में दर्शाया गया है।
एयं किकम्मविहिं जुजता चरण - करण-माउत्ता । साहू खवंति कामं, अणेगभव संचिअ - मणंतं ॥ ४०॥
शब्दार्थ:- एयं-इस प्रकार, पूर्वोक्त , जुजंता करनेवाला, आउत्ता-उपयोगवन्त सावधान, संचिअ-संचित, एकत्रित किये हुए, ___ गाथार्थ:- इस प्रकार पूर्व में कहे अनुसार कृतिकर्म विधि (गुरुवंदन विधि को) को करने वाला एवं चरण करण में (चारित्र व उसकी क्रिया में अर्थात् चरण व करण सित्तरि में) उपयोगवन्त साधु पूर्व भव के (में) एकत्रित किये हुए अनन्त (भवों के) कर्मोको 'खपाता है (याने मोक्ष जाता है) १) श्री सिद्धान्त में कहा है कि 'वंदणएण भंते जीवे किं अज्जिअइ? गोअमा ! अहकम्मपगडीओ निबिड़बंधण बढ़ाओ सिढिल-बंधण बढ़ाओ करेई' इत्यादि आलापकों का अर्थ इस प्रकार है। हे भगवन्त ! गुरुवंदन के द्वारा जीव क्या (लाभ) उपार्जन करता है? उत्तर :- हे गौतम ! आठ कर्म प्रकृति जो गाढ बंधन से बांधी गयी हैं। उन्हे शिथिल बंधन वाली करता है। तीव्ररस वाली को मंदरसवाली करता है। अधिक प्रदेश समूहवाली को अल्पप्रदेश वाली करता है। तथा इस अनादि अनन्त संसाररुपी अटवी में भ्रमण नही करता है, पार हो जाता है।
(दूसरे आलापक का अर्थ) तथा वंदन दारा नीचगोत्र कर्म खपाते हैं। और उच्चगोत्र कर्म बांध! तथा सौभाग्यवाली अप्रतिहत ऐसी जिनेश्वर की आज्ञा का फल प्राप्त करे ! ॥ इति धर्मसंग्रहवृत्ति॥
दार
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