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अवतरण :- पूर्व कथित ३२ दोष से रहित वंदन करने वाले को किस फल की प्राप्ति होती है? जिसका स्वरुप दर्शाति गाथा ।
बत्तीस दोष परिसुद्धं किकम्मं जो पउंजइ गुरुणं ।
सो पावइ निन्वाण, अचिरेण विमाणवासं वा ॥२६॥ शब्दार्थ:- जो-जो साधु, पउंजइ-करे, पावइ प्राप्त करे, अचिरेण शिघ्र
गाथार्थ:- जो साधु (साध्वी, श्रावक या श्राविका) गुरु को बत्तीस दोष से रहित अत्यंत शुद्ध कृतिकर्म (दादशावर्त वंदन) करे वह साधु (विगेरे)शीघ्र निर्वाण-मोक्ष को. प्राप्त करे, अथवा विमान मे वास (वैमानिक देव) प्राप्त करे । ॥२६॥ - भावार्थ:- गाथार्थवत् सुगम है। अवतरण:-गुरु वंदन से गुणो की प्राप्ति रुप १४ वा दार इस गाथा में दर्शाया गया है।
इह छच गुणा विणओ-वयार माणाइभंग गुरुपूआ | तित्ययराण य आणा, सुय धम्मा राहणा 5 किरिया ॥२७॥ शब्दार्थ:- गाथार्थ के अनुसार
गाथार्थ:- यहाँ (गुरु वंदन से) छ गुण प्राप्त होते हैं, वो इस प्रकार विनयोपचार विनय वही उपचार आराधना का प्रकार उसे विनयोपचार कहा जाता है । याने विनयगुण की प्राप्ति होती है। (२) मानभंग अर्थात अभिमान अहंकार का नाश होता है। (३) 'गुरु पूआ: गुरु जनो की सम्यक पूजा (सत्कार) होता है। श्री तीर्थंकर परमात्मा की (४) 'आज्ञाका आराधन अर्थात आज्ञा का पालन होता है। (१) श्रुतधर्म की आराधना होती है। और परंपरा से (6) अक्रिया याने (७) सिद्धिः प्राप्त होती है। (3) अभिमान रहित भावसे वंदन करने से ही सम्यक् गुरुपूजा मानी जाती है। (२) विनय धर्म का मूल हैं ऐसी तीर्थकर परमात्मा की आज्ञा है। इसलिए (३) वंदन पूर्वक ही श्रुत ग्रहण किया जाता है। इसलिए वंदन करने से श्रुतकी आराधना होती है। (४) गुरु वंदन से परंपरा द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस विषय में श्रीसिद्धांत में इस प्रकार कहा है।
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