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नव अहिगारा इह ललियवित्थरावित्तिमाइ अणुसारा । तिन्नि सुअपरंपरया बीओ दसमी इगारसमो ॥ ४६ ॥
गाथार्थ :- यहाँ ९ अधिकार श्री ललित विस्तारा नामकी वृत्ति के अनुसार हैं। और दूसरा, दसवाँ और अग्यारवामें ये तीन अधिकार श्रुतपरंपरा से चले आरहे हैं ।
विशेषार्थ :- नमुत्थुणं में 'जेअ अड़या सिध्धा' वाली एक गाथारुप दूसरा अधिकार और सिध्धाणं की चौथी व पाँचवी गाथारूप १० वाँ व ११वाँ ये तीन अधिकार श्रुत परंपरा अर्थात् गीतार्थ पूर्वाचार्यो के संप्रदाय से हैं। अथवा श्रुत सूत्र से तथा उस सूत्रकी नियुक्ति उसके भाण्य व चूर्णि से इस प्रकार श्रुत की परंपरा से (सुत्रादि पंचागी की परंपरा से) कहे जाते हैं। जैसे कि सूत्र में चैत्यवंदना पुवखरवरदी तक कही गयी है । और नियुक्ति में पुवखरवरदी उपरान्त एक सिध्धस्तुति (सिध्धाणं की एक गाथा) तक कही गयी है, और चूर्णि में चैत्यवंदना सिध्धाणं की ३ गीथा (महावीर प्रभु की स्तुति) तक कही गयी है । और शेष उज्जयंतादि अधिकार यथेच्छासे कहने योग्य है । ये बात आगे की गाथा में कही जायेगी । शेष ९ अधिकार सूत्र को 'आधार मानकर कहे गये है। कारण कि ललित विस्तार वृत्ति में ९ अधिकार अवश्य पढने योग्य कहे गये हैं।
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और शेष तीन अधिकार नियमसे पढ़ने योग्य न होने से इन ३ अधिकारों की व्याख्या नही करते हैं, इस प्रकार कहा है, लेकिन ये तीन अधिकार पूर्वाचार्यकृत नियुक्ति और चूर्णि में कहे गये हैं । अतः श्रुत परंपरा से कहे जाते हैं ।
अवतरण :- ९ अधिकार सिवाय के तीन अधिकार (जहेच्छाए) वंदन करनेवाले की इच्छा के अनुसार कहे हैं, ये बात शास्त्र विरुद्ध नही है लेकिन शास्त्रकी सम्मतिपूर्वक ही है । इस प्रकार दर्शाने के लिए भाष्यकर्ता उन तीन अधिकारों के विषय में शास्त्र का पूरावा दर्शाती है ।
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