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इरियावहियं के बाद मिच्छामिदुक्कडं देकर आलोचना प्रतिक्रमण करने के बाद.
१. उसकी उत्तर (बादकी ) क्रियारुप काउस्सग्ग प्रायश्चित करने के द्वारा याने | कायोत्सर्ग ये प्रतिक्रमण की उत्तर क्रिया है (१० प्रायश्चित्तो में कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त की बादकी याने उत्तर क्रिया में है )
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२. ये उत्तर क्रिया भी जैसे वैसे करने की नही है, लेकिन प्रायश्चित पापकी शुद्धि के लिए करना है, इसलिए प्रायश्चित करने की भावना होनी चाहिये ।
३. प्रायश्चित्त करने का हेतु आत्म-शुध्धि है। यदि शुध्धि न हो तो प्रायश्चित करने [ से क्या लाभ?
४. और शुधि भी माया, मिथ्यात्व और निदान, इन तीन शल्यों से आत्माको रहित करने के लिए है । यदि ये तीनों नही जाते हैं तो आत्म- विशुध्धि संभव नही।
ये चार हेतुओं तथा वंदनादिक फल प्राप्त करने के उद्देश्य से कायोत्सर्ग करने में आवे, लेकिन वह कायोत्सर्ग यथायोग्य साधन सामग्री के अभाव में किया जाय तो क्या उद्देश्य की सिध्धि किस तरह से हो सकती है ? इसके लिए श्रध्धा विगेरे पांच साधन साथमें अपनाना चाहियें।
५. श्रध्धा - दूसरों की प्रेरणा के विना बढ़ती हुई सम्यग् - दर्शनकी शुध्धि द्वारा
६. और उसके द्वारा बढ़ती हुई मेधा, अर्थात् देखा देखी या मूढता के विना हेयोपादेय बुध्धि, अथवा परमात्मा की आज्ञानुसार मर्यादावाली बुध्धि से
७. और इस प्रकार की बुध्धि से बढ़ती हुई धृति (धैर्यता ) से अर्थात् रागादिसे आकुलव्याकुल हुए बिना मनकी एकाग्रता वाली प्रीति पूर्वक के धैर्यता से ।
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