________________
उत्तर:- अदृष्ट पूर्व (पूर्व परिचय में नहीं आये हुए अपरिचित) साधुओं को देखकर उनका अभ्युत्थानादि सत्कार अवश्य करना चाहिये। जिससे आनेवाला साधु ये नही कहे कि 'ये अविनीत है। तथा परिचित साधु उधत विहारी और शीतल विहारी दो प्रकार के होते है। उधतविहारी को अभ्युत्थानादि-वंदनादि यथायोग्य सत्कार करना चाहिये और शीतलविहारी को नहीं करना चाहिये, ये उत्सर्ग मार्ग है। उनको तो किसी गाढ कारण से (अति आवश्यक कारण से) अर्थात् अपवाद से, पर्याय, (बह्मचर्य)- परिषद् पुरुष क्षेत्र-काल और आगमका विचार करके ही लाभालाभ को ध्यान मे रखकर वंदनादि सत्कार करना चाहिये। .. ____प्रश्न:-जिस प्रकार तीर्थंकर में प्रतिमा की तीर्थंकर के गुण नहीं है, फिरभी (गुणों का आरोपण कर) साक्षात् तीर्थंकर मानकर वंदन पूजन करते है।, वैसे ही पार्श्वस्थादि साधुओं में साधु के गुणों का आरोपण करके उन्हे वंदना करें तो क्या उचित है?
उतर:-प्रतिमा में तो गुण अवगुण दोनो ही नहीं होने से उसे जिस प्रकार की गुणोवाली मानना चाहें मान सकते हैं। लेकिन पावस्थादि में तो अवगुण विद्यमान हैं, जिससे उनमें गुणों का आरोपण नही हो सकता । खाली पात्र में जो भरना चाहें वो भर सकते है, किन्तु भरे हुए पात्र में दूसरी वस्तु नही भर सकते, अतः प्रतिमा का दृष्टान्त इस स्थान पर घटाना उचित नहीं (इत्यादि स विस्तार चर्चा आव० नियुक्ति से जानना)
दार-४- ( अवंदनीय) अवतरण:- इस गाथा में ५ वंदनीय साधुओं का ४ था दार कहते हैं।
आयरिय उवज्झाए पवति थेरे तहेव रायणिए। किकम्म निज्जरहा, कायम्वमिमेसि पंचव्हं ॥३॥ शब्दार्थ:- निज्जर =निर्जरा के, अट्ठा लिए , इमेसिं=इन
गाथार्थ:- आचार्थ-उपाध्याय-प्रवर्तक-स्थविर तथा रात्निक इन पांचको निर्जराके लिए वंदन करना (चाहिये) ॥१३॥
भावार्थ : आचार्य :- गण (गच्छ) के नायक सूत्र-अर्थ के ज्ञाता और अर्थ की वाचना देते हों उन्हे आचार्य कहते है। . -
उपाध्यायः- गण के नायक बनने के योग्य, (नायक के समान) सूत्र-अर्थ के ज्ञाता लेकिन वाचना सूत्र की देते हो, उन्हे उपाध्याय कहते हैं।
99